भोपाल,
30-12-1952
प्रिय जयप्रकाशजी,
आप कैसे हैं? दफ़्तर में सब कुशल है न? कुछ बातें आपसे बाँटना चाहता हूँ। सोचा कि एक चिट्ठी लिखू। अब मैं भोपाल में हूँ। मुंबई के रास्ते में था। डिब्बे में सोने के लिए सीट भी मिली थी। लेकिन रात आई तो मैं भोपाल ताल की एक नाव में लेटा बुढ़े मल्लाह अब्दुल जब्बार से गज़लें सुन रहा था।
भोपाल स्टेशन पर मित्र अविनाश ने मुझसे मिलने आया था। बात करने की जगह उसने मेरा बिस्तर लपेटकर खिड़की से बाहर फेंक दिया और खुद मेरा सूटकेस लिए हुए नीचे उतरा। रात ग्यारह बजे के बाद हम लोग घूमने निकले। जब भोपाल ताल के पास आया तो मन लगा कि नाव लेकर कुछ देर तक झील की सैर करें। अचानक अविनाश ने कहा कि कितना अच्छा होता अगर इस वक्त हम में से कोई कुछ गा सकता। हमारी नाव का मल्लाह अब्दुल जब्बार गायक तो नहीं, हीं मगर उसने कुछ गज़लें तरन्नम के साथ पेश किया। उसका गला अच्छा था। सुनाने का अंदाज़ भी शायराना था। एक के बाद दूसरी फिर तीसरी। हम दोनों उसके गायन में विलीन हो गए थे। जब वह खामोश हो गया तो वातावरण ही बदल गया। रात, सर्दी का नाव का हिलना सबका अनुभव पहले नहीं हो रहा था, अब होने लगा। फिर उससे गालिब की गज़लें सुनाया गया। भोपाल-ताल की सैर मज़ेदार था, दिल को छूनेवाली थी। दफ्तर में सबको मेरा नमस्कार कहना। बाकी सब अगले पत्र में। तुरंत ही जवाबी पत्र की प्रतीक्षा करते हुए।