26 दिसंबर 1952.
कल जो भोपाल- ताल की यात्रा करने का मन हुआ वह अविस्मरणीय रहा। रात साढ़े ग्यारह बजे मैं अविनाश के साथ भोपाल-ताल पर यात्रा की। हमारा मल्लाह अब्दुलजब्बार नामक एक बूढ़ा था। वह बहुत खुशमिज़ाज नज़र आया। अविनाश के आग्रह प्रकट करते ही उसने तीन गज़लें छेड़ दी। वाह ! हम उसपर विलीन हो गए थे। रात, सर्दी एवं नाव के हिलने का अंदाज़ा पहले नहीं हुआ था। झील का विस्तार भी गाते समय सिमट गया था। उसका गला काफ़ी अच्छा था। सुनाने का अंदाज़ भी शायराना था। नाव चलाने का बीच काफ़ी देर चप्पुओं को छोडे वह झूमझू -झूमकर झू गज़लें सुनाता रहा। तेज़ गर्मी में भी बेचारा सिर्फ एक तहमद लगाए बैठा था। जब वह चप्पू चलाने लगता तो उसकी मांसपेशियाँ इस तरह हिल्ती जैसे उनमें फौलाद भरा हो। मैं और अविनाश उसके गज़ल गायन में इतना विलीन हो गए थे कि लौट जाने की बात ही नहीं सोचा था। आगे उसने गालिब की गज़ल पैश की – “मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए……”! आहा! क्या बात है! यह दुनीया ही कुछ और है।