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ऐसी बानी बोलिए , मन का आपा खोय । औरन को सीतल करौ, आपहु सीतल होय ।।
पाहन पूजे हरि मिलों, तो मैं पूजूँ पहार । ताते यह चाकी भली , पीस खाय संसार ।।
जहाँ दया तहाँ धर्म है , जहाँ लोभ तहाँ पाप । जहाँ क्रोध तहाँ काल है , जहाँ छिमा तहाँ आप ।।
उपर्युक्त दोहों का भावार्थ ६ से ८ पंक्तियों में लिखिए ।

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कबीरजी कहते है कि मनुष्य को अपना गर्व त्यागकर सदा मीठी बोली बोलना चाहिए । मीठी बोली बोलने से सुनने वाला व्यक्ति संतुष्ट होता है । और बोलने वाले को भी आनन्द की अनुभूति होती है । कबीर ईश्वर के निराकार रूप को मानते है । वे मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं रखते । उनके अनुसार पत्थर की मूर्ति पूजने से कोई लाभ नहीं होता । मूर्ति पूजा हमारे अज्ञान का प्रतीक है । कबीरजी का कहना है कि मूर्ति की पूजा करने से भगवान के दर्शन होते है , तो वे पत्थर से बने समूचे पहाड़ की ही पूजा करने को तैयार है । उनके मतानुसार पत्थर की मूर्ति से अच्छी तो घर की आटा पीसने की चक्की है , जिसमे पीसा हुआ आता सारी दुनिया के लोग खाते है । कबीर के अनुसार दया ही सच्चा धर्म है उसी से ईश्वर प्रसन्न होते है । लोभ और क्रोध पाप और विनाश के रूप है । इनसे हमेशा बचना चाहिए । क्षमा इस्वर का निवास - स्थान होता है । जहाँ दया की भावना होती है , वही धर्म होता है जहाँ लोभ की भावना होती है , वहाँ पाप की उत्पत्ति अवश्य होती है । जहाँ क्रोध का वर्चस्व होता है , वहाँ विनाश का सामाज्य होता है । इसी तरह जहाँ क्षमा करने की प्रवृति होती है वहाँ ईश्वर स्वंय मैाजूद रहते है । क्षमा मनुष्य का सबसे बड़ा गुण है ।

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