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अकाल पीड़ित की आत्मकथा ।

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कृषि प्रधान देश का मै एक कृषिप्रधान किसान हूँ मेरा नाम किसान - मेरा धर्म और कर्म खेती करना है । पूरे जग का पोषण करने वाला । मै एक अन्नदाता यह सारे नाम आप लोगों ने ही मुझे बहाल किये है । यहाँ की लगभग ७० प्रतिशत जनसंख्या कृषि से जुडी हुई है । संत सांवला माली , संत तुकाराम मेरे ही धर्म के थे । मेरी तुलना उनसे उनके काम से नहीं हो सकती , परन्तु खेल - जमीन पर किसके मेहनत करके उपज निकालता हूँ परन्तु आज के दिनों में परिस्थियों में बदलाव आया है बारिश न आने के कारण सूखा पड़ जाता है । भुखमरी और महामारी जैसी समस्या उत्पन्न होती है । किसी भी क्षेत्र में कुछ महीने या कुछ साल तक बारिश न आने की स्थिति को सूखा या अकाल कहते है । अकाल या सूखे के दिनों में किसानों को अर्थात हमें यह जीवन कुछ अच्छा लगता है । जीना मुश्किल हो जाता है । पाठशाला में जाने वाले हमारे बच्चे जब किताबों की माँग कहते है । तब मुझे पाठशाला पर ही गुस्सा आता है । मानों ऐसे लगता है जैसे पाठशाला सिर्फ बच्चों की ही परीक्षा नहीं ले रही है , बल्कि हमारे जैसे असंख्य किसान बाँधवों की भी परीक्षा ले रही है । खेती की होने वाली उपज पर ही हमारा सालभर होने वाले खर्चों का गणित या हिसाब निर्धारित होता है ।
पिछले कई सालों से अकाल ने मेरे और मेरे जैसे अनेक किसानों के मनोबल को निर्दयता से झकझोर डाला है । हजारों की संख्या में लोग एक वक्त की रोटी के लिए तरस जाते है । अनेक लोग छप्परों और वृक्षों के नीचे रहते है । इस सारी घटना से मेरा मनोबल टूट जाता है । कुपोषण की समस्या इस दौरान अपना सर उठाती है । हम जैसे जग का पोशिंदा कहलाने वाले किसान बर्तन , गहने और अन्य आवश्यक सामान बेचकर खाना खरीदते है । हमारे पशु भूख के कारण मर जाते है । पानी पीने के लिए कई मील तक चलना पड़ता है । भारता की जनसंख्या में बहुत तेजी से वृद्धि हो रही है , लेकिन खाद्य सामग्री के उत्पादन में उतनी तेजी से वृद्धि नहीं हो रही है । तेजी से बढ़ती जनसंख्या , बढ़ती महगांई , बढ़ता प्रदूषण और हर साल पड़ने वाला अकाल यह आज देश के सामने बड़ी ही महत्वपूर्ण और उतनी ही चिन्ताजनक समस्या है । इस समस्या का सबको सामना करना पड़ रहा है । संघर्ष करना पड़ रहा है । इस अकाल के कारण हमारे जैसे किसानों की स्थति दयनीय हो गयी है। इस अकाल की स्थिति के प्रतिनिधि के रूप में मैं आज आपसे बोल रहा हूँ ।
सच में इस परिस्थिति के लिए हम सब जिम्मेदार है क्या ? यह सीधा - सा सवाल मेरे मन में आता है । इक्कीसवीं सदी में हमारे देश के होने वाली प्रगति के मार्ग पर हम कहाँ पर है ? यह भी एक सवाल उभरकर सामने आता है । एशिया खण्ड में सबसे सामर्थ्यशाली और महासत्ता बनने का सपना देखने वाला हमारा देश वहुत ही तीव्रगति से प्रगति करता हुआ दिख रही है , परन्तु मानवीय जीवन जैसे - जैसे गतिमान बन रहा है वैसे - वैसे नौसर्गिक संतुलन बिगड़ रहा है । मानव ने अपने स्वार्थ के लिए नीसर्ग की अपरिमित हानि की है , जिसके कारण जंगलों का हासृ , प्रदूषण , शहरीकरण के कारण निसर्ग का संतुलन विचलीत हो रहा है । इस सबका परिणाम है अकाल ................
हम ऐसी परिस्थिति में जीवन जी सकते है , परन्तु हमारे पशु - पक्षी उनका क्या ? उनके लिए घास - फूस और पानी कहाँ से लाये । हमारे सब खेती पूरक पशु अकाल के कारण मर जाते है । इस परिस्थिति का समाधान करने के लिए शासन ने कुछ ठोस योजना बनानी चाहिए । हमारे देश को फिर से सुजलाम् सुफलाम् बनाने के लिए हम सभी को मिलकर अन्तिम उपाय निकालना चाहिए ऐसा मुझे लगता है ।

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