लेखक हजारीप्रसाद द्विवेदी जी तीन-चार वर्ष एक ऐसे मकान में रहे जिसकी दीवारों में चारों ओर एक-एक सुराख था। एक मैना दंपति हर साल नियमित रूप से इनमें अपनी गृहस्थी बसाया करते थे। ईंटों से सुराख भर दिए जाएँ, तो वे खाली बची जगह का भी उपयोग कर लेते थे। उन दोनों के नाच-गान और आनंद नृत्य होकर वहाँ रहते थे लेखक कहते हैं कि वे पक्षियों की भाषा तो नहीं जानते, पर मैना दंपति की आपस में होने वाली बातों का अनुमान लगा सकते हैं। जब मैना पूछती होगी कि लेखक के परिवार वाले लोग यहाँ कैसे आ गए, तब उसका पति उत्तर देता होगा कि आ गए हैं तो रहने दो, हमारा क्या कर लेंगे ? इस पर मैना कहती होगी कि इन लोगों को इतना तो ख्याल रखना चाहिए कि यह हमारा प्राइवेट घर होने के कारण इनमें इतनी समझदारी कैसे हो सकती है ? इस पर मैना कहती होगी कि जाने दो, अपना इनसे क्या वास्ता ? उस पर पति कहता होगा कि यही तो मैं भी कहता हूँ।
इस प्रकार, लेखक के अनुमान के अनुसार मैना दंपति ऊपर दिए गए ढंग से आपसी बातें करते होंगे