` " " ` एक अपाहिज की आत्मकथा
वक्त गुजरता चला जा रहा है। आज भी उस दिन की याद मन को पीड़ित कर देती है। नौ साल की उम्र में जब में खेलने -कूदने के खुश के दें बिता रहा था, अपने माता-पिता की छत्र-छाया में निश्चिन्त होकर अपनी बाली उम्र जी रहा था तो अचानक एक भयानक हादसे का शिकार हो गया। उस बदनसीब दिन ने मेरी रंगीन दुनिया को एक चुभती हुई काल-कोठरी बना दिया । मेरा जुर्म ही क्या था जो किसी की गलती का शिकार मुझे उम्रभर तक होना पड़ रहा है ?
मै खुद इस हादसे से उबर भी जाऊँ मगर समाज मेरी विकलांगता का एहसास मुझे अक्सर कराता है। आज देश में महिलाओं, गरीबों के हित के नाम पर राजनैतिक दल अपनी कुर्सियों पर टिके हुए है पर इन सबके बेच कोई भी देश के अपाहिजों के तथा विकलांगों के बारे में नहीं सोचता है। कई विकलांग, अपाहिज ऐसे है जो आर्थिक सहायता से अपनी विकलांगता पूर्व हँसमुख जिंदगी दोबारा जी सकते है। मगर विकलांगों की सबसे ज्यादा उपेक्षा होती है। मैं स्वयं यह दर्द बुगट रहा हूँ । एक दुर्घटना में डॉक्टरों द्वारा गलत इलाज किये जाने अपर स्थायी रूप से अपाहिज होना पड़ा। आज विकलांग या अपाहिज होना मानो अभिशाप बन गया है। इस रफ्तार भरे समाज में अपाहिज पीछे छूटते और दुर्लक्षित होते जा रहे है। अपाहिजों को उपहास का विषय बनाया जाता है।
मैं जानता हुए और मानता हुए की सरकार ने अपाहिजों के लिए बस, रेलगाड़ी आदि यातायात में साधनों में स्थान आरक्षित किए हुए हैं। सरकारी नौकरियों में भी यह आरक्षण जारी किया है, किन्तु इसका लाभ आसान नहीं होता। यह सुविधाएँ हासिल करने के लिए अपाहिजों को कड़ी कठिनाइयों से गुजरना पड़ता है। आम जनता को या समाज को अफाहिज मानो बोझ प्रतीत होते हैं। सरकार द्वारा संचालित कई संस्थाएँ भी है अपाहिजों को देखभाल करने के लिए, किन्तु वहाँ का जीवन अक्सर हमारे लिए सरल और सुखमय नहीं रहा है।
मेरा ये दर्द जो अंदर तक मैंने झेला है उससे छुटकारा सिर्फ मौत दे सकती है, मगर मैं कमजोर नहीं। मेरी मानसिक ताकत, संतुलन और विश्वास अभी भी सक्षम और सशक्त है। मुझे दया की भीख मंजूर नहीं। मैं मेहनत और काबलियत के दम पर आज भी जीतने का हौसला रखता हूँ । सरकार और समाज के प्रोत्साहन की आवश्यकता है। शरीरिक अक्षमता मेरी पहचाल नहीं है बल्कि मेरा हौसला मेरी पहचान है।