शंट एक अल्प प्रतिरोध होता है , जो धारामापी की कुंडली के साथ समांतर कर्म में लगाया जाता है ।
कुंडली के साथ शंट लगा देने से मुख्य धारा का अधिकांश भाग शंट में से प्रवाहित होता है तथा धारामापी क्षतिग्रस्त होने से बच जाता है ।
चित्र में प्रदर्शित परिपथ में प्रवाहित धारा I है । इसका `I_(g)` भाग धारामापी से तथा `I_(S)` भाग शंट में से प्रवाहित होता है ।
माना धारामापी का प्रतिरोध G तथा शंट का प्रतिरोध S है ।
स्पष्ट है `I = I_(g) + I_(S) ` .....(1)
चित्र से स्पष्ट है कि धारामापी की कुंडली के सिरों पर विभवांतर व शंट के सिरों पर विभवांतर समान होंगे ।
अर्थात -
`I_(S) xx S = I_(g) xx G` ...(2)
तथा `I_(S) = I - I_(g)`
` :. (I - I_(g)) S = I_(g) G`
`rArr S = I_(g)/((I - I_(g)))G`
या `S = G/((I/I_(g) - 1)) ` ...(3)
यदि मुख्य धारा I का nवाँ भाग ही धारामापी में प्रवाहित हो , तो
`I_(g)/I = 1/n`
तब समी. (2) से ,
`S = G/((n-1)) ` ....(4)
अतः यदि मुख्य धारा का वाँ भाग धारामापी में से प्रवाहित करना हो , तो शंट के प्रतिरोध को धारामापी के प्रतिरोध का `(n - 1)`वाँ भाग होना चाहिए । यदि शंट का सिद्धांत है ।
शंट से लाभ - शंट से निम्नलिखित लाभ है -
(i) शंट लगाने से धारामापी का प्रभावी प्रतिरोध कम हो जाता है , जिससे धारामापी को विधुत परिपथ में जोड़ने पर परिपथ का प्रतिरोध लगभग अपरिवर्तित रहता है अतः परिपथ की धारा उतनी ही बनी रहती है , जितनी कि धारामापी को जोड़ने से पहले थी ।
(ii) यह धारामापी के कुंडली को जलने से बचाता है , साथ ही अधिक विक्षेप होने से संकेतक के टूटने का खतरा नहीं रहता ।
(iii) शंट के प्रतिरोध को बदल - बदल कर धारामापी के परास को इच्छानुसार परिवर्तित किया जा सकता है ।
शंट से हानि - धारामापी के साथ शंट लगाने से इसकी सुग्राहिता कम हो जाती है अतः उन प्रयोगों में , जहाँ इससे अविक्षेप स्थिति ज्ञात किया जाता है , अविक्षेप स्थिति के आस - पास शंट को निकाल दिया जाना चाहिए ।