कुष्ठ रोग
कारण एवं प्रसार माइकोबैक्टीरियम लैप्री नामक जीवाणु इस रोग का कारक है। ये जीवाणु रोगी व्यक्ति के शरीर के घावों में विद्यमान रहते हैं। अतः स्वस्थ व्यक्ति के रोगी के घावों के सम्पर्क में आने पर, ये जीवाणु स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में प्रवेश कर उसे संक्रमित कर सकते हैं।
लक्षण प्रारम्भ में रोगी के शरीर में सफेद रंग के दाग पड़ते हैं, जो क्रमश: घावों में बदल जाते हैं। रोगी में दो प्रकार के लक्षण प्रकट हो सकते हैं।
1. चकत्ते वाली त्वचा संवेदनाहीन हो जाए अथवा स्पर्श करने पर उसमें | असहनीय पीड़ा का अनुभव हो। इन स्थानों पर बने फफोले बाद में घाव में बदल जाते हैं। इन घावों से रक्त व मवाद निकलता है। हाथ-पैरों की अंगुलियाँ गलने लगती हैं। यह अवस्था संक्रमण-योग्य होती है।
2. त्वचा के सूखने पर, पहले लाल दाने बनते हैं, जो धीरे-धीरे सफेद रंग के हो जाते हैं। शरीर के बालों को स्वतः गिरना अन्य प्रमुख लक्षण है। इसके अतिरिक्त गले में गिल्टियाँ बनना, आवाज भारी एवं भद्दी होना, सिरदर्द आदि लक्षण दिखाई दे सकते हैं। यह अवस्था संक्रमण-योग्य नहीं होती।
बचाव के उपाय
इस रोग से बचाव के उपाय निम्नलिखित हैं
⦁ रोगी को स्वस्थ मनुष्य के सम्पर्क में आने से बचना चाहिए।
⦁ व्यक्तिगत स्वच्छता पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
⦁ रोगी के वस्त्रों को उबालकर धोना चाहिए इससे संक्रमण की आशंका कम | हो जाती है। रोगी द्वारा प्रयोग की गई वस्तुओं; जैसे-बर्तन आदि को नि:संक्रामक से धोना चाहिए।
उपचार कुष्ठ रोग पूर्णतः उपचार योग्य रोग है। सरकार द्वारा अनुदान प्राप्त अनेक अस्पतालों में इसका नि:शुल्क इलाज उपलब्ध कराया जा रहा है। आवश्यक है कि संक्रमण की प्रारम्भिक अवस्था में ही इसका निदान हो जाए, जिससे इस रोग को समय रहते ठीक किया जा सके। रोगी का सामाजिक समायोजन उपचार-प्रक्रिया का ही महत्त्वपूर्ण चरण है। अत: इस ओर ध्यान देना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।