किसी देश में एक वर्ष के भीतर जन्म लेने वाले प्रति हजार शिशुओं में मृत शिशुओं की गणना ‘शिशु मृत्यु-दर’ कहलाती है। शिशु मृत्यु-दर की गणना में 0 से 1 वर्ष की आयु तक के बच्चों को सम्मिलित किया जाता है। बाल मृत्यु दर की गणना पाँच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मौत के मामलों के आधार पर की जाती है। अर्थात् बाल मृत्यु-दर नवजात शिशुओं के साथ-साथ पाँच वर्ष तक की आयु के बच्चों की मौत को इंगित करती है। आज का बोलके कल को नागरिक होता है और यदि नागरिक न रहे, तो राष्ट्र कैसा, इसलिए बाल मृत्यु को किसी भी देश की प्रगति का शुभ संकेत नहीं माना जाता है। आज भारत में बाल मृत्यु दर बहुत अधिक है।
भारत में बाल मृत्यु की ऊँची दर के कारण
भारत में उच्च बाल मृत्यु दर के कुछ प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं।
⦁ शिक्षा का अभाव
⦁ निर्धनता
⦁ गर्भावस्था में असावधानी
⦁ बाल-विवाह
⦁ अनुचित प्रसूति-गृह
⦁ रोगी माता-पिता
⦁ परिवार नियोजन का पालन न करना
⦁ मातृ-शिशु कल्याणकारी संस्थाओं की कमी
⦁ चिकित्सा एवं नि:संक्रमण सम्बन्धी सुविधा की कमी
1. शिक्षा का अभाव बाल मृत्यु-दर के अधिक होने के कारणों में अशिक्षा एक महत्त्वपूर्ण कारक है। शिक्षा के अभाव में महिलाओं को गर्भावस्था के दौरान बरती जाने वाली सावधानियों की जानकारी नहीं होती है। शिक्षा के अभाव में महिलाओं को शिशु सुरक्षा, प्रसव पूर्व एवं प्रसव के बाद की जाने वाली परिचर्या की जानकारी नहीं हो पाती है, जो बाल मृत्यु-दर को बढ़ावा देती है। शिक्षा के अभाव में महिलाएँ सरकार द्वारा उपलब्ध कराई जा रही सुविधाओं का भी लाभ नहीं उठा पा रही हैं
2. निर्धनता बाल मत्य-दर पर निर्धनता का प्रभाव तीनों स्तर पर देखा जा सकता है, जन्म के पूर्व, जन्म के दौरान एवं जन्म के बाद।
निर्धनता के कारण गर्भावस्था के दौरान,महिलाएँ स्वयं को सन्तुलित एवं पौष्टिक आहार नहीं दे पाती हैं, जिससे माता और शिशु दोनों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। वहीं चिकित्सा सम्बन्धी विभिन्न सुविधाएँ होते हुए भी निर्धन जनता उसका लाभ नहीं उठा पाती है। ऐसी स्थिति में गरीब लोग घर पर ही दाइयों से प्रसव करा लेते हैं। इस मजबूरी के कारण अनेक बार जन्म के समय ही शिशु की मृत्यु हो जाती है। जन्म के बाद भी शिशु को निर्धनता के कारण पौष्टिक और सन्तुलित आहार नहीं मिल पाता है। इस स्थिति में इन नवजात शिशुओं को स्वास्थ्य खराब हो जाता है, लेकिन धन के अभाव के कारण बच्चों का समुचित उपचार नहीं हो पाता है।
3. गर्भावस्था में असावधानी गर्भावस्था के दौरान यदि माता अपने स्वास्थ्य, पोषण एवं अन्य आवश्यक देखभाल का ध्यान रखती है, तो जन्म लेने वाला बच्चा भी स्वस्थ होता है। इसके विपरीत यदि माता अपने स्वास्थ्य एवं पोषण का ध्यान नहीं रखती है, तो नवजात शिशु भी दुर्बल तथा अस्वस्थ हो जाता है। प्रायः इन दशाओं में जन्म लेने वाले बच्चे रोगों से संक्रमित हो जाते हैं, जो शिशु-मृत्यु का कारण बनते हैं।
4. बाल-विवाह आज भी अशिक्षा और अज्ञानता के कारण भारत में बहुत सारी लड़कियों की शादी 14-15 वर्ष की आयु में कर दी जाती है। इस आयु में लड़कियों का शारीरिक विकास पूर्णरूप से नहीं होता है तथा रज-वीर्य अपरिपक्व अवस्था में होता है। ऐसी स्थिति में इन लड़कियों से जन्म लेने वाला बच्चा दुर्बल एवं अपरिपक्व होता है, जो शिशु मृत्यु का कारण होता है।.
5. अनुचित प्रसूति-गृह प्रसूति-गृह ही वह स्थान होता है, जहाँ गर्भ से बाहर आने के बाद बच्चा पहली बार साँस लेता है। अतः किसी भी जन्म लेने वाले बच्चे के लिए प्रसूति-गृह का विशेष महत्त्व है। भारत में आज भी अधिकांश क्षेत्रों में व्यवस्थित एवं उचित प्रसूति-गृह का अभाव है। ग्रामीण क्षेत्रों में प्राय: घर पर ही प्रसव कराए जाते हैं।
6. रोगी माता-पिता आज भारत में असंख्य माता-पिता रोगग्रस्त हैं। ऐसे में जब इन माता-पिता से बच्चे का जन्म होता है, तो बच्चे में भी रोग का , संक्रमण हो जाता है, इसलिए संक्रमित सन्तान का प्रायः जीवित रह पाना कठिन हो पाता है। इस स्थिति में कुछ शिशुओं की मृत्यु प्रसव के दौरान हो जाती है तथा कुछ की अल्पायु में मृत्यु हो जाती है।
7. परिवार नियोजन का पालन न करना परिवार नियोजन का पालन न करने | से अनेक परिवारों में बच्चों की संख्या अधिक हो जाती है। ऐसे परिवार में जन्म लेने वाले बच्चों का समुचित ध्यान रख पाना कठिन होता है तथा बच्चों की मृत्यु की सम्भावना अधिक रहती है।
8. मातृ-शिशु कल्याणकारी संस्थाओं की कमी हमारे देश में जनसंख्या के अनुपात में मातृ-शिशु कल्याणकारी संस्थाओं की काफी कमी है। इस कारण से गर्भवती महिलाओं एवं नवजात शिशुओं को अनेक आवश्यक ‘सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हो पाती हैं। इन सुविधाओं के अभाव में अनेक माताओं एवं नवजात शिशुओं की मृत्यु हो जाती है।
9. चिकित्सा एवं निःसंक्रमण सम्बन्धी सुविधा की कमी आज भी हमारे देश में जनसंख्या के अनुपात में चिकित्सा सुविधाओं की पर्याप्त व्यवस्था उपलब्ध नहीं है। अप्रशिक्षित नीम-हकीमों के पास अशिक्षित जनता जाने के लिए मजबूर हो जाती है। अनेक लोग तन्त्र-मन्त्र एवं झाड़-फूक के द्वारा उपचार में विश्वास करते हैं। इस तरह अव्यवस्थित चिकित्सा एवं योग्य प्रशिक्षित चिकित्सकों की कमी से हजारों बच्चे रोगग्रस्त होने पर स्वस्थ नहीं हो पाते और उनकी मृत्यु हो जाती है।