सीख़ने की प्रक्रिया के सन्दर्भ में परिपक्वता (Maturation) का उल्लेख करना अनिवार्य है। परिपक्वता सीखने की प्रक्रिया का एक अनिवार्य कारक है।
परिपक्वतो, से अभिप्राय है ‘समुचित शारीरिक विकास’, जिसके कारण मानव-शरीर के अंग-प्रत्यंग का समानुपातिक विकास होता है तथा उसकी देहदृष्टि सुसंगठित होकर बढ़ती है। एक नवजात शिशु शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था को पार कर युवावस्था में कदम रखता है। विकास को यह प्रक्रिया व्यक्ति के शरीरांगों को पुष्ट तथा सबल बनाती है और उसकी कार्यक्षमता में
अभिवृद्धि होती है। मनुष्य के शरीरांगों के आधार पर उसकी शारीरिक क्रियाएँ तथा मस्तिष्क के आधार र मानसिक क्रियाएँ संचालित होती हैं। इस प्रकार परिपक्वता व्यक्ति की स्वाभाविक अभिवृद्धि है जो बिना किन्हीं विशिष्ट परिस्थितियों; जैसे–शिक्षा एवं अभ्यास आदि के अनवरत रूप से चलती रहती है। उदाहरण के लिए सभी बच्चे अपनी एक निश्चित अवस्था में बैठना, पैरों पर खड़े होना, चलना, बोलना तथा अनेकानेक दूसरे कार्य करना सीखते हैं। एक नन्हें से बच्चे को चाहे कितनी ही शिक्षा या अभ्यास क्यों न प्रदान किया जाए’ वह कम्प्यूटर चलाना नहीं सीख सकता। एक निश्चित उम्र पर पहुंचकर वह इसके लिए परिपक्व हो जाता है तथा इसे सुगमता से सीख लेता है। बोरिंग ने परिपक्वता को इस प्रकार परिभाषित किया है, “हम परिपक्वता शब्द का प्रयोग उस बुद्धि और विकास के लिए करेंगे जो किसी बिना सीखे हुए व्यवहार से या किसी विशिष्ट व्यवहार के सोखने से पहले आवश्यक होता है।”