जातिवाद का अर्थ
(Meaning of Casteism)
भारत में जातिवाद प्राचीनकाल की वर्ण-व्यवस्था के विचार से जुड़ा है। सर्वमान्य रूप से विभिन्न वर्गों में विभाजित प्राचीन भारतीय समाज में वर्गीकरण का आधार वर्णाश्रम व्यवस्था थी, जिसके अन्तर्गत समाज को चार वर्गों (वर्गों) में विभक्त किया गया था—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। तत्कालीन भारतीय मनीषियों ने इन चारों वर्षों के कार्य भी निर्धारित कर रखे थे-ब्राह्मण अध्ययन-अध्यापन का कार्य, क्षत्रिय शासन तथा राज्य की सुरक्षा सम्बन्धी कार्य, वैश्य व्यापार सम्बन्धी कार्य तथा शूद्र सेवा के कार्य करते थे। ये कार्य एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तान्तरित होते चलते थे। शनैः-शनै: यह वर्ण-व्यवस्था ही जाति-प्रथा में बदल गयी। जाति-व्यवस्था के अन्तर्गत समूची भारतीय समाज जातियों तथा उपजातियों में विभाजित हुआ। इस भाँति, भारत में जातिवाद की उत्पत्ति हुई जो धीरे-धीरे विकसित होकर ज्वलन्त प्रश्नचिह्न के रूप में उभरी है।
“जातिवाद किसी एक जाति या उपजाति के सदस्यों की वह भावना है जिसमें वे देश, अन्य जातियों या सम्पूर्ण समाज के हितों की अपेक्षा अपनी जाति या समूह के सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक हितों या लाभों को प्राप्त करने का प्रयास करते हैं।’ ब्राह्मणवाद, वणिकवाद, कायस्थवाद, जाटवाद और अहीरवाद आदि-आदि जातिवाद के विषवृक्ष के ही कडुए फल हैं। वस्तुतः यह एक जाति या उपजाति-विशेष के प्रति अन्धी सामूहिक निष्ठा है जो अपने हितों की रक्षा में अन्यों को बलिवेदी पर चढ़ा देती है।
जातिवाद के कारण।
(Causes of Casteism)
आजकल भारतीय समाज में जातिवाद अपनी गहरी और फैली हुई जड़ों के साथ स्थायित्व धारण कर चुका है। इसके दूषित परिणाम मानव जीवन के सभी पक्षों को बुरी तरह प्रभावित कर रहे हैं जिससे समाज छोटे-छोटे खण्डों में विभाजित होता जा रहा है। जातिवाद के विकास के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं
(1) अपनी जाति की प्रतिष्ठा की एकांगी भावना- जातिवाद के विकास में एक जाति-विशेष की अपनी जाति के लिए प्रतिष्ठा की एकांगी भावना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कारण है। प्रायः अपनी जाति की प्रतिष्ठा के विचार से लोग उसे पूरे समाज से पृथक् मान लेते हैं तथा उसकी झूठी प्रतिष्ठा का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन करते हैं। किसी जाति-विशेष के सदस्य अपनी जाति के हितों को सुरक्षित रखने के लिए अच्छे-बुरे, उचित-अनुचित, वैधानिक-अवैधानिक सभी तरह के प्रयास करते हैं। अपनी जाति के लिए अन्ध-भक्ति और झूठी प्रतिष्ठा की भावना से प्रेरित होकर लोग अन्य जातियों के प्रति गलत पूर्वाग्रह तथा घृणा के विचार से ग्रस्त हो जाते हैं। इन सभी बातों से समाज में जातिवाद बढ़ता है।
(2) व्यक्तिगत समस्याओं का समाधान- लोग अपनी व्यक्तिगत समस्याओं को हल करने के लिए भी जातिवाद का सहारा लेने लगे हैं। अपनी समस्याओं के समाधान हेतु एक जाति के लोग अपनी ही जाति के अन्य लोगों से सहायता लेने के लिए तत्पर और प्रयत्नशील हुए । इस प्रकार : जातिगत भावनाओं के माध्यम से लोग एक-दूसरे के अधिक निकट आने लगे तथा सम्पर्क साधने लगे। अपनी जाति का हवाला देकर भावप्रवणता (Sentiment) उत्पन्न करके लोगों ने जातिवाद को बढ़-चढ़कर फैलाया।
(3) विवाह सम्बन्धी प्रतिबन्ध– विवाह सम्बन्धी प्रतिबन्धों के कारण सामाजिक सम्बन्ध जाति के अन्तर्गत ही सीमित हो जाते हैं। हमारे देश में हिन्दू विवाह के नियमों के अनुसार जातिगत अन्तर्विवाह (Caste Endogamy) के कारण एक जाति के सभी सदस्य स्वयं को एक वैवाहिक समूह समझने लगे। इसमें अन्र्तर्जातीय विवाह को निषिद्ध माना गया था और प्रत्येक जाति का सदस्य इस बात के लिए बाध्य था कि वह अपनी ही जाति-समूह से जीवन-साथी का चुनाव करे। कुछ जातियों में तो सिर्फ उपजातियों के अन्तर्गत ही विवाह सम्भव है। इन सब बातों के फलस्वरूप लोगों में जातिवाद की प्रबल भावना का विकास हुआ।
(4) आजीविका में सहायता- आजीविका की समस्या समाज के प्रत्येक व्यक्ति के साथ जुड़ी है। देश में बेकारी की समस्या अपनी चरम सीमा पर है। वर्तमान परिस्थितियों में योग्य से योग्य व्यक्ति भी उपयुक्त रोजगार की तलाश में भटक रहा है। नौकरी पाने के लिए ‘जुगाड़’ शब्द प्रचलित हो गया है, जिसके सहारे आसानी से काम हो जाता है। नौकरी पाने और देने में लोगों ने जुगाड़ की दृष्टि से जातिवाद का आश्रय प्राप्त किया और अपनी जाति के प्रभावशाली लोगों तथा उच्चाधिकारियों को जाति के नाम पर प्रभावित करके नौकरी पाने की चेष्टा करने लगे। इससे लोगों को सफलता भी मिली जिससे जातिवाद की भावना बढ़ती गयी।
(5) नगरीकरण तथा औद्योगीकरण– बीसवीं शताब्दी की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण देन नगरीकरण एवं औद्योगीकरण हैं। विशाल नगरों में या उनके आस-पास बड़े-बड़े औद्योगिक संस्थान स्थापित हुए जिससे वहाँ का सामाजिक जीवन काफी जटिल हो गया है। महानगरों में एक-दूसरे से सहायता पाने और करने की दृष्टि से एक ही जाति के लोग एक-दूसरे के समीप आये और अधिकाधिक संगठित होने लगे। इस प्रकार सुरक्षा और उन्नति के विचार से नगरीकरण तथा औद्योगीकरण की पृष्ठभूमि में जातिवाद की प्रक्रिया व्यापक हुई।
(6) यातायात तथा प्रचार के साधनों का विकास- यातायात तथा प्रचार के साधनों द्वारा नगरों में बिखरे हुए जातीय सदस्य पुनः परस्पर सम्बन्ध स्थापित करने लगे और संगठित हो गये। अपनी जाति की उन्नति के लिए जाति-विशेष के सदस्यों ने अपनी पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारम्भ किया, उन्हें पर्याप्त सहयोग मिला और अन्ततः जातीयता के नाम पर देश के विभिन्न भागों के लोग अपनी ही जाति के लोगों से सम्पर्क साधने लगे।
जातिवाद को समाप्त करने के उपाय
(Measures to Remove Casteism)
जातिवाद हमारी मानवता के नाम पर कलंक है और मानव समाज के लिए एक बहुत बड़ा अभिशाप है। प्रमुख समाजशास्त्री, मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक तथा विचारक इस बात पर एकमत हैं कि जातिवाद का अन्त किए बिना मानव सभ्यता को एक सूत्र में बाँधना कठिन है। जातिवाद को समाप्त करने के उपाय निम्नलिखित हैं –
(1) शिक्षा की समुचित व्यवस्था — जातिवाद की संकीर्ण विचारधारा को रोकने का सर्वशक्तिमान साधन और उपाय शिक्षा की समुचित व्यवस्था करना है। विद्यार्थियों को इस प्रकार शिक्षित किया जाना चाहिए कि जातिवाद के विचार उनके मस्तिष्क को जरा भी न छू सकें और उनके मत छुआछूत तथा भेदभाव से सर्वथा दूर रहें। इसके लिए पाठ्यक्रम, शिक्षण विधियाँ, पाठ्य-सहगामी क्रियाएँ तथा सांस्कृतिक कार्यक्रम आदि को इस प्रकार नियोजित किया जाए कि विद्यार्थियों में नवीन मनोवृत्तियाँ तथा आदर्श व्यवहार के प्रतिमान विकसित हो सकें। इसके अतिरिक्त शिक्षा के माध्यम से जातिवाद के विरुद्ध स्वस्थ जनमत भी विकसित करना होगा।
(2) साहित्य-सृजन- जातीयता की भावना एवं पूर्वाग्रहों के विरुद्ध गीत, कहानियाँ, नाटक, उपन्यास, निबन्ध तथा लेख लिखकर साहित्य का सृजन किया जाना चाहिए। इस साहित्य में जातिवाद के दुष्परिणामों को उजागर करते हुए मानव-समाज की एकता की भावना को समर्थन देना होगा। इससे शिक्षित वर्ग में जातिवाद का विकार कम किया जा सकता है।
(3) अन्तर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहन– अन्तर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहन देने से जातिवाद को समाप्त किया जा सकता है। अन्तर्जातीय विवाह के अन्तर्गत अलग-अलग जातियों के युवक और युवती जीवन-भर के लिए स्थायी वैवाहिक बन्धन में बंध जाते हैं जिससे सामाजिक दूरी रखने वाले दो परिवारों को भी एक-दूसरे के समीप आने का मौका मिलता है। यही नहीं, दोनों परिवारों के सम्बन्धीगण भी स्वयं को एक-दूसरे के नजदीक महसूस करने लगते हैं। इससे विविध जातियों के मध्य सामाजिक सम्बन्धों का एक जाल-सा निर्मित होने लगता है और विभिन्न जातियों में एक-दूसरे के प्रति समझ-बूझ और लगाव पैदा होने लगता है।
(4) सांस्कृतिक विनिमय– प्रत्येक जाति और उपजाति की संस्कृति न्यूनाधिक रूप से दूसरी जातियों और उपजातियों की संस्कृति से भिन्न अवश्य होती है। धर्म, साहित्य, कला, भाषा, विश्वास, आस्थाएँ तथा आचार-विचार की दृष्टि से एक जाति के लोग दूसरी जाति से अलगाव महसूस करने लगते हैं। स्पष्टतः सांस्कृतिक भिन्नता बढ़ने पर जातिगत भिन्नता को बढ़ना स्वाभाविक है; अतः विभिन्न जातियों के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान द्वारा समान एवं अच्छे आचरण के बीज बोए जी सकते हैं। ये बीज प्रेम, सहानुभूति, भ्रातृत्व-भाव एवं सहयोग के रूप में पुष्पित-पल्लवित होंगे।
(5) सामाजिक-आर्थिक समानता– विभिन्न जातियों के मध्य सामाजिक-आर्थिक विषमता के कारण भी स्वार्थपूर्ण एवं एकांगी भाव पैदा हो जाते हैं जिससे समूह-तनाव और संघर्ष विकसित होते हैं। यदि अलग-अलग जातियों के सामाजिक रीति-रिवाजों, त्योहारों, प्रथाओं तथा आयोजनों को , एक-समान धरातल पर मिल-जुलकर मनाया जाए; सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध सभी जातियों के लोग एकजुट होकर संघर्ष करें तथा एक-दूसरे के प्रति सामाजिक सम्मान व प्रतिष्ठा व्यक्त करें तो लोगों के मन में जातीय आधार पर घुली कड़वाहट दूर हो सकती है। इसी प्रकार सामाजिक क्षेत्र के आर्थिक क्षेत्र से घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। आर्थिक विषमताएँ, प्रतिद्वन्द्विता, विद्वेष, प्रतिस्पर्धा, वैमनस्य, तनाव तथा वर्ग-संघर्ष को जन्म देती हैं। देश की सरकार को चाहिए कि वह आर्थिक समानता के सत्प्रयासों से जातिवाद की तीव्रता को प्रभावहीन बनाए।
(6) ‘जाति’ शब्द का कम-से- कम प्रयोग -किसी विचार को बार-बार सुनने से न चाहते हुए भी उसका प्रभाव पड़ता ही है। यदि आज की पीढ़ी के बच्चे ‘जाति’ शब्द का अधिक प्रयोग करेंगे तो वे जिज्ञासा एवं अभ्यास के द्वारा इसे आत्मसात् कर लेंगे। इस शब्द के अंकुर भविष्य में जातिवाद के घने
और विस्तृत वृक्ष के रूप में आकार लेंगे। अतः ‘जाति’ शब्द का कम-से-कम प्रयोग किया जाना चाहिए ताकि जातिवाद के विचार को कोई प्रोत्साहन ही न मिल सके और धीरे-धीरे इसका अस्तित्व ही मिट जाए।
(7) कानूनी सहायता – कानून की सहायता लेकर भी जातिवाद पर अंकुश लगाया जा सक्रा है। हमारे देश में प्रायः लोग अपने नाम के साथ जाति लिखते हैं, इस पर कानूभी रोक लगाकर जातिगत अभिव्यक्ति को हतोत्साहित किया जाना चाहिए। इसके अलावा जातिवाद की संकीर्ण एवं तुच्छ मानसिकता को प्रश्रय देने वाले या इसका प्रचार करने वालों को कठोर दण्ड दिया जाना चाहिए।
(8) जातिवाद के विरुद्ध प्रचार–जन- सामान्य की मनोवृत्ति में परिवर्तन लाने की दृष्टि से प्रचार-तन्त्र का उपयोग किया जाना चाहिए। जातिवाद के अंकुर लोगों के मस्तिष्क में हैं। सिर्फ बाहरी दबाव से जातिवाद की समस्या समाप्त होने वाली नहीं है, इसके लिए लोगों की अभिवृत्ति और विश्वास पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालने होंगे। यह स्वस्थ एवं उचित प्रकार के माध्यम से सम्भव है जिसके लिए समाचार-पत्र, पत्रिकाओं, सिनेमा, टी० वी०, सभाओं तथा प्रदर्शनों आदि का सहारा लिया जा सकता है।