बाजार का अर्थ तथा परिभाषाएँ
साधारण बोलचाल की भाषा में बाजार शब्द से अभिप्राय किसी ऐसे स्थान विशेष से है जहाँ किसी वस्तु या वस्तुओं के क्रेता व विक्रेता एकत्र होते हैं तथा वस्तुओं का क्रय-विक्रय करते हैं, परन्तु अर्थशास्त्र में बाजार शब्द का अर्थ इससे भिन्न है। अर्थशास्त्र के अन्तर्गत बाजार शब्द से अभिप्राय उस समस्त क्षेत्र से है जहाँ तक किसी वस्तु के क्रेता व विक्रेता फैले होते हैं तथा उनमें स्वतन्त्र प्रतियोगिता होती है, जिसके कारण वस्तु के मूल्यों में एकरूपता की प्रवृत्ति पायी जाती है।
विभिन्न अर्थशास्त्रियों के द्वारा बाजार की परिभाषाएँ निम्नवत् दी गयी हैं
एली के अनुसार, “हम बाजार को अर्थ साधारण क्षेत्र से लगाते हैं जिसके अन्तर्गत किसी वस्तु-विशेष पर मूल्य निर्धारित करने वाली शक्तियाँ सक्रिय होती हैं।”
कूर्गों के शब्दों में, “अर्थशास्त्री ‘बाजार’ शब्द का अर्थ किसी ऐसे विशिष्ट स्थान से नहीं लगाते हैं जहाँ पर वस्तुओं का क्रय-विक्रय होता है, बल्कि उस समस्त क्षेत्र से लगाते हैं जिसमें क्रेताओं और विक्रेताओं के मध्य आपस में इस प्रकार का सम्पर्क हो कि किसी वस्तु का मूल्य सरलता एवं शीघ्रता से समान हो जाये।”
प्रो० जेवेन्स के अनुसार, “बाजार शब्द का अर्थ व्यक्तियों के किसी भी ऐसे समूह के लिए होता है जिसमें आपस में व्यापारिक सम्बन्ध हों तथा जो किसी वस्तु का विस्तृत सौदा करते हों।”
प्रो० चैपमैन – “बाजार शब्द आवश्यक रूप से स्थान का बोध नहीं करता, बल्कि वस्तु अथवा वस्तुओं तथा क्रेताओं एवं विक्रेताओं का ज्ञान कराता है, जिसमें पारस्परिक प्रतिस्पर्धा होती है।”
प्रो० बेन्हम – “बाजार वह क्षेत्र होता है, जिमसें क्रेता और विक्रेता एक-दूसरे के इतने निकट सम्पर्क में होते हैं कि एक भाग में प्रचलित कीमतों का प्रभाव दूसरे भाग में प्रचलित कीमतों पर पड़ता रहता है।’
स्टोनियर एवं हेग – “अर्थशास्त्री बाजार का अर्थ एक ऐसे संगठन से लेते हैं, जिसमें किसी वस्तु के क्रेता तथा विक्रेता एक-दूसरे के निकट सम्पर्क में रहते हैं।”
प्रो० जे० के० मेहता – “बाजार एक स्थिति को बताता है, जिसमें एक ऐसी वस्तु की माँग एक ऐसे स्थान पर का जाती है, जहाँ उसे विक्रय के लिए प्रस्तुत किया जाता है।”
बाजार के मुख्य तत्व (लक्षण/विशेषताएँ)
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर बाजार में पाँच तत्त्वों का समावेश किया जाता है
1. एक क्षेत्र – बाजार से अर्थ उसे समस्त क्षेत्र से होता है जिसमें क्रेता व विक्रेता फैले रहते हैं तथा क्रय-विक्रय करते हैं।
2. एक वस्तु का होना – बाजार के लिए एक वस्तु का होना भी आवश्यक है। अर्थशास्त्र में प्रत्येक वस्तु का बाजार अलग-अलग माना जाता है; जैसे–कपड़ा बाजार, नमक बाजार, सर्राफा बाजार, किराना बाजार, घी बाजार। अर्थशास्त्र में बाजार की संख्या वस्तुओं के प्रकार तथा किस्मों पर निर्भर करती है।
3. क्रेताओं व विक्रेताओं का होना – विनिमय के कारण बाजार की आवश्यकता होती है। अतः बाजार में विनिमय के दोनों पक्षों (क्रेता व विक्रेता) का होना आवश्यक है। किसी एक भी पक्ष के न होने पर बाजार नहीं होगा।
4. स्वतन्त्र व पूर्ण प्रतियोगिता – बाजार में क्रेता और विक्रेताओं में स्वतन्त्र व पूर्ण प्रतियोगिता होनी चाहिए जिससे कि वस्तु की कीमत सम्पूर्ण बाजार में एकसमान बनी रह सके।
5. एक कीमत – बाजार की एक आवश्यक विशेषता यह भी है कि बाजार में किसी वस्तु की एक समय में एक ही कीमत हो। यदि कोई व्यापारी किसी वस्तु की एक ही समय में भिन्न-भिन्न कीमतें माँगता है तो क्रेता उससे माल नहीं खरीदेंगे। अत: बाजार में वस्तु की कीमत की प्रवृत्ति समान होने की होती है।
6. बाजार को पूर्ण ज्ञान – वस्तु का एक ही मूल्य हो, इसके लिए क्रेता-विक्रेता दोनों को ही बाजार का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए। बाजार का अपूर्ण ज्ञान होने के कारण उनको वस्तुएँ उचित मूल्य पर प्राप्त होने में कठिनाई होती है।
उपर्युक्त विशेषताओं के आधार पर बाजार को इस प्रकार भी परिभाषित किया जा सकता है-“अर्थशास्त्र में बाजार का आशय किसी वस्तु के क्रेताओं एवं विक्रेताओं के ऐसे समूह से होता है, जिनमें स्वतन्त्र पूर्ण प्रतियोगिता हो तथा जिसके फलस्वरूप उस वस्तु की बाजार में एक ही कीमत हो।”