‘पर्यावरण’एक विस्तृत अवधारणा है, इसे अंग्रेजी में ‘एनवायरनमेण्ट’ (Environment) कहते हैं। पर्यावरण का हमारे जीवन से इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि पर्यावरण को स्वयं से पृथक् करना एक असम्भव-सी बात लगती है। सामाजिक मानव के विषय में पूर्ण अध्ययन करने के लिए यह आवश्यक है कि उसके पर्यावरण का अध्ययन किया जाये। यही कारण है कि समाजशास्त्र विषय के अन्तर्गत मनुष्य का अध्ययन पर्यावरण के सन्दर्भ में ही किया जाता है।
पर्यावरण का अर्थ एवं परिभाषाएँ
‘पर्यावरण’ शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है। ये शब्द हैं-‘परि’ और आवरण। ‘परि’ का अर्थ है चारों ओर’ तथा ‘आवरण’ का अर्थ है ‘घिरे हुए’ अथवा ढके हुए। इस प्रकार पर्यावरण का अर्थ हुआ – चारों ओर से घिरे हुए अथवा ढके हुए। दूसरे शब्दों में, ‘पर्यावरण’ शब्द का अर्थ उन वस्तुओं से है जो मनुष्य से अलग होने पर भी उसे चारों ओर से ढके या घेरे रहती है। संक्षेप में, वे सभी परिस्थितियाँ जो एक प्राणी के अस्तित्व के लिए आवश्यक हैं तथा उसको चारों ओर से घेरे हुए अथवा ढके हुए हैं, उसका पर्यावरण कहलाती हैं। पर्यावरण को विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न प्रकार से परिभाषित किया है। कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नवत् हैं
इलियट के मतानुसार, “चेतन पदार्थ की इकाई से प्रभावकारी उद्दीपन और अन्तक्रिया के क्षेत्र को पर्यावरण कहते हैं।”
रॉस के अनुसार, “कोई भी बाहरी शक्ति, जो हमें प्रभावित करती है, पर्यावरण होती है।” प्रो० गिलबर्ट के शब्दों में, “वह वस्तु जो किसी वस्तु को चारों ओर से घेरती एवं उस पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालती है, पर्यावरण है।
उपर्युक्त परिभाषाओं द्वारा यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि पर्यावरण से तात्पर्य उस ‘सब कुछ से होता है जिसका अनुभव सामाजिक मनुष्य करता है तथा जिससे वह प्रभावित भी होता है।
भारतीय सामाजिक जीवन पर भौगोलिक पर्यावरण के प्रभाव
भौगोलिक पर्यावरण को प्राकृतिक पर्यावरण’ (Natural Environment) अथवा ‘अनियन्त्रित पर्यावरण’ (Uncontrolled Environment) भी कहते हैं। इस प्रकार के पर्यावरण से तात्पर्य हमारे चारों ओर के प्राकृतिक वातावरण से है। मैकाइवर तथा पेज के अनुसार, “भौगोलिक पर्यावरण उन दशाओं से मिलकर बनता है जिन्हें प्रकृति ने मनुष्य के लिए प्रदान किया।” लैण्डिस ने कहा है कि, “इसमें वे समस्त प्रभाव सम्मिलित होते हैं जो यदि मनुष्य द्वारा पृथ्वी से पूर्ण रूप से हटा दिये जाएँ, तब भी उनका अस्तित्व बनी रहे।” भौगोलिक पर्यावरण का मानव-जीवन पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार से प्रभाव पड़ता है। भारतीय सामाजिक जीवन भी इस नियम का अपवाद नहीं है। भौगोलिक विभिन्नताओं के कारण ही हमारे देशवासियों की जीवन-शैली, प्रथाओं, परम्पराओं, खान-पान, वेशभूषा आदि में भी भिन्नता है। भौगोलिक पर्यावरण के भारतीय सामाजिक जीवन पर पड़ने वाले प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रभावों को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है
(क) प्रत्यक्ष प्रभाव
1. जनसंख्या पर प्रभाव – मनुष्य उन्हीं स्थानों पर रहना अधिक पसन्द करता है, जहाँ की जलवायु ऋतुएँ, भूमि की बनावट व जल इत्यादि की सुविधाएँ उत्तम हैं। बहुत अधिक गर्म और बहुत अधिक ठण्डे तथा अत्यधिक वर्षा वाले भागों में लोग रहना पसन्द नहीं करते। कहने का तात्पर्य यह है कि जहाँ भौगोलिक पर्यावरण अनुकूल होता है वहाँ जनसंख्या का घनत्व भी अधिक होता है तथा प्रतिकूल पर्यावरण वाले स्थानों पर जनसंख्या का घनत्व बहुत कम पाया जाता है। यही कारण है कि हमारे देश में गंगा-यमुना वाले क्षेत्रों में जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है और उसकी अपेक्षाकृत रेगिस्तान और हिमालय आदि
क्षेत्रों में जनसंख्या कम पायी जाती है।
2. “आवास की प्रकृति अथवा मानव निवास पर प्रभाव – भौगोलिक पर्यावरण का ‘आवास’ की प्रकृति अथवा मनुष्य के निवास पर भी प्रभाव पड़ता है। बहुत अधिक गर्म प्रदेशों के लोग हवादार मकान बनवाते हैं; जैसे – भारत में बिहार, राजस्थान आदि प्रदेशों में। इसके विपरीत ठण्डे प्रदेशों में मकान ऐसे बनवाये जाते हैं जिनमें ठण्ड से बचाव किया जा सके। भारत के मैदानी प्रदेशों में गारा-मिट्टी और ईंटों के मकान बनाये जाते हैं, जब कि पहाड़ी क्षेत्रों में पत्थरों और लकड़ी के मकान बनाये जाते हैं।
3. वेशभूषा एवं खानपान पर प्रभाव – ठण्डी जलवायु वाले स्थानों के लोग अधिकांशतः मांसाहारी होते हैं तथा ऊनी वस्त्र धारण करते हैं, जब कि गर्म स्थानों के लोग अधिकांशतः शाकाहारी होते हैं और वर्ष में अधिक समय वे सूती वस्त्र धारण करते हैं। उदाहरण के लिए, कश्मीर में रहने वाले लोग मांस, मछली, अण्डा और इसी प्रकार के अन्य गर्म खाद्य-पदार्थों का सेवन अधिक करते हैं तथा चमड़े, खाल और ऊन से बने वस्त्रों का अधिक प्रयोग करते हैं। इसके विपरीत गर्म प्रदेशों; जैसे-राजस्थान, बिहार आदि के लोग सूती, हल्के व ढीले वस्त्रों का अधिक प्रयोग करते हैं तथा ठण्डे व शीघ्र पचने वाले खाद्य-पदार्थों का सेवन करते हैं।
4. व्यवसाय पर प्रभाव – मनुष्य के मूल व्यवसाय भी भौगोलिक पर्यावरण पर आधारित होते हैं। उदाहरणार्थ-भारत के हर प्रदेश में हर प्रकार की फसल उगाना जलवायु की विभिन्नता के कारण सम्भव नहीं है। अत: जिस प्रदेश में जो फसल पैदा नहीं होती, उस प्रदेश से वह कृषि-उपज जहाँ वह खूब पैदा करती हैं मँगाकर अपनी जरूरत पूरी करता है और इस प्रकार विनिमय व्यापार (Exchange Trade) का जन्म होता है।
5. आवागमन के साधनों पर प्रभाव – भौगोलिक पर्यावरण का प्रभाव आवागमन के साधनों पर भी पड़ता है। जिन स्थानों पर अति शीत के कारण भूमि तथा समुद्र बर्फ से ढके रहते हैं। वहाँ पर किसी भी प्रकार के आने-जाने के रास्ते बनाना सम्भव नहीं है। अधिक वर्षा वाले भागों में भी रेलवे ट्रैक या सड़कें नहीं बनायी जा सकतीं। मरुस्थलों में भी रेतीली भूमि होने के कारण सड़कें बनाना बहुत कठिन होता है। कुहरायुक्त वातावरण में वायुयान की उड़ान असम्भव है। इसीलिए समतल भूमि पर जहाँ वर्षा सामान्य होती है, मार्ग (सड़कें, रेलवे ट्रैक) बनाना बहुत आसान होता है। यही कारण है कि भारत के अनेक भागों में (जो कि अधिकांशतः मैदानी क्षेत्र हैं) आवागमन के साधन अधिक हैं। परन्तु पर्वतीय प्रदेशों में ऐसा नहीं है।
(ख) अप्रत्यक्ष प्रभाव
1. उद्योग-धन्धों पर प्रभाव – अर्थशास्त्रीय उद्योगों के स्थानीयकरण का सिद्धान्त यही स्पष्ट करता है कि किसी भी विशेष उद्योग की स्थापना के लिए विशेष भौगोलिक पर्यावरण की आवश्यकता पड़ती है। लोहे के कारखानों का बिहार में अधिक मात्रा में होने का मुख्य कारण वहाँ कोयले की खानों का अधिक होना है। अहमदाबाद और मुम्बई में कपास की खेती अधिक होने के कारण वहाँ कपड़ा मिलों की अधिकता है। इसी प्रकार फिल्म उद्योग के लिए साफ आसमान, प्रकाश और स्वच्छ मौसम की आवश्यकता होती है। इसीलिए यह उद्योग मुम्बई में सबसे अधिक विकसित है
2. धर्म, साहित्य व कला पर प्रभाव – जिन वस्तुओं से मनुष्य अपने जीवन का निर्वाह करता है उसके प्रति उसके मन में श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है वह उनकी पूजा करने लगता है। उदाहरण के लिए, भारत के लोगों द्वारा गंगा, यमुना, सूर्य आदि की पूजा की जाती है। साहित्य पर भी पर्यावरण का प्रभाव पड़ता है। उदाहरणार्थ-रेगिस्तानी क्षेत्र में रहने वाला साहित्यकार अपने साहित्य में ऊँट’ या खजूर के पेड़ों का वर्णन करते हुए मिलता है। इसी प्रकार समुद्री तट के निकटतम प्रदेश में रहने वाला चित्रकार जितनी अच्छी तरह समुद्र का चित्र चित्रित कर सकता है, उतना पहाड़ी इलाके में रहने वाला नहीं। रामायण, महाभारत आदि रचनाओं पर भी पर्यावरण का ही प्रभाव देखने को मिलता है।
3. समाज-जीवन पर प्रभाव – विभिन्न प्राकृतिक या भौगोलिक परिस्थितियों के कारण ही भिन्न-भिन्न रीति-रिवाजों का जन्म होता है। हमारे देश के विभिन्न प्रदेशों के रीति-रिवाजों, प्रथाओं, भोजन, साहित्य, कला आदि में जो विभिन्नताएँ विद्यमान हैं, उनके पीछे मूल कारण भौगोलिक अथवा प्राकृतिक पर्यावरण की विभिन्नता ही है।
4. सामाजिक संगठन पर प्रभाव – भौगोलिक पर्यावरण का सर्वाधिक प्रभाव सामाजिक संगठन पर पड़ता है। लीप्ले ने लिखा है कि ‘‘ऐसे पर्वतीय प्रदेशों में जहाँ खाद्यान्न की कमी होती है। वहाँ जनसंख्या की वृद्धि अभिशाप मानी जाती है और ऐसी विवाह संस्थाएँ स्थापित की जाती हैं जिनसे जनसंख्या न बढ़ पाये।” यही कारण है कि भारत में जौनसार बाबर में बहुत-से “भाइयों की केवल एक ही पत्नी होती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि भौगोलिक पर्यावरण का भारतीय सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों पर प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है।