दीन-ए-इलाही के बारे में डॉ० श्रीराम शर्मा ने लिखा है “दीन-ए-इलाही को एक धर्म का स्तर देना कोरी अतिशयोक्ति है। यह सम्राट के राष्ट्रीय आदर्शवाद का ज्वलन्त उदाहरण है। इसका कोई धर्म-ग्रन्थ, पुरोहित, संस्कार वास्तविक रूप से कोई धार्मिक विश्वास नहीं थे। इसे धर्म न कहकर एक संस्था अथवा परिपाटी कहना अधिक उपयुक्त होगा जो किसी धार्मिक आन्दोलन के विपरित एक स्वतन्त्र विचारधारा के निकट है।” स्मिथ ने दीन-ए-इलाही को अकबर की बुद्धिमता का नहीं, अपितु उसकी मूर्खता का प्रतीक बताया है। लेकिन इस सम्बन्ध में डॉ० ए०एल० श्रीवास्तव का मत है कि दीन-ए-इलाही इस उच्च उद्देश्य से प्रेरित होकर चलाया गया था कि इससे देश की विभिन्न जातियाँ एकाकार होकर राष्ट्र का रूप धारण कर लेंगी।
अकबर उत्तरी-भारत में राजनीतिक प्रशासकीय, आर्थिक और कुछ हद तक सांस्कृतिक एकता स्थापित करने में सफल हुआ। अकबर की इस सहनशीलता की नीति की बदायूँनी और जेसुइट पादरियों ने बड़ी आलोचना की है तथा बदायूँनी ने यह आरोप लगाया कि अकबर ने इस्लाम के साथ अन्याय किया। लेकिन उसकी इस आलोचना को सत्य नहीं माना जा सकता, क्योंकि वह एक कट्टर सुन्नी मुसलमान था और उस जैसे धर्मान्ध मुल्ला की दृष्टि में वह अक्षम्य अपराध था कि इस्लाम को प्रमुखता की स्थिति से गिराकर उसे अन्य धर्मों के साथ समानता की स्थिति पर ले जाया जाये। जेसुइट पादरी भी जो बादशाह को ईसाई बना देने की आशा में थे किन्तु अन्त में निराश हो गये तो अकबर की आलोचना करना इनके लिए स्वाभाविक ही नहीं अवश्यम्भावी भी था।