जन-आन्दोलनों को राजनीति की प्रयोगशाला कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। जन-आन्दोलन कभी सामाजिक तो कभी राजनीतिक आन्दोलन का रूप ले सकते हैं। भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति पूर्व और स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद अनेक जन-आन्दोलन हुए, जिन्होंने बाद में राजनीतिक रूप ग्रहण कर लिया। भारत के स्वाधीनता आन्दोलन को इसका उदाहरण माना जा सकता है।
इसी प्रकार भारत की स्वतन्त्रता के उपरान्त प्रारम्भिक वर्षों में दक्षिण भारत के आन्ध्र प्रदेश के अन्तर्गत आने वाले तेलंगाना क्षेत्र के किसान कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में लामबन्द हुए। इन्होंने काश्तकारों के बीच जमीन के पुनर्वितरण की माँग की। आन्ध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल और बिहार के कुछ भागों में किसान तथा कृषि मजदूरों ने मार्क्सवादी-लेनिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं के नेतृत्व में अपना विरोध जारी रखा। ऐसे आन्दोलनों ने औपचारिक रूप से चुनावों में भाग तो नहीं लिया लेकिन राजनीतिक दलों से इनका नजदीकी रिश्ता कायम हुआ। इन आन्दोलनों में शामिल कई व्यक्ति और संगठन राजनीतिक दलों में सक्रिय रूप से जुड़े। ऐसे जुड़ाव से दलगत राजनीति में विभिन्न सामाजिक तबकों की बेहतर नुमाइन्दगी सुनिश्चित हुई।
इस प्रकार जन-आन्दोलनों और राजनीति का गहरा नाता रहा है। आन्दोलनों के दौरान किए जाने वाले सफल प्रयोगों को राजनीतिक दल अपना लेते हैं।