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भारत में स्थानीय स्व-शासन की प्रकृति की व्याख्या कीजिए। 

या

पंचायती राज व्यवस्था के महत्त्व का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।

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स्व-शासन की माँग की. तो ब्रिटिश सरकार ने ग्रामीण क्षेत्र में पंचायत और नगर क्षेत्र में नगरपालिका स्तर पर स्व-शासन की शक्तियाँ देना प्रारम्भ किया। कालान्तर में भारत शासन अधिनियम में प्रान्तीय विधानमण्डलों को स्थानीय स्व-शासन’ की बाबत विधान अधिनियमित करने की शक्ति प्रदान की गयी। परन्तु स्वतन्त्र भारत के संविधान-निर्माता इन विद्यमान अधिनियमों से सन्तुष्ट न थे। इसलिए 1949 के संविधान में अनुच्छेद 40 के रूप में एक निर्देश समाविष्ट किया गया। इसके अनुसार, “राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिए कदम उठायेगा और उनको ऐसी शक्तियाँ और प्राधिकार प्रदान करेगा जो उन्हें स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने योग्य बनाने के लिए आवश्यक हो।’
किन्तु अनुच्छेद 40 में इस निर्देश के होते हुए भी पूरे देश में ही इस बात पर ध्यान नहीं दिया गया कि प्रतिनिधिक लोकतन्त्र की इकाई के रूप में इन स्थानीय इकाइयों के लिए निर्वाचन कराए जाएँ।

संविधान 73वाँ संशोधन और. 74वाँ संशोधन अधिनियम, 1992 ने इस दिशा में एक गति प्रदान की। अब नयी प्रणाली के अन्तर्गत कुछ नयी बातों का समावेश किया गया; जैसे – जनता द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचन, महिलाओं के लिए आरक्षण, निर्वाचनों के संचालन के लिए निर्वाचन आयोग तथा वित्त आयोग जिससे ये संस्थाएँ वित्त की दृष्टि से आत्म निर्भर रह सकें।

वर्तमान स्थानीय स्व-शासन के ढाँचे के स्वरूप एवं प्रवृत्ति को निम्नलिखित रूप में लिपिबद्ध किया जा सकता है –

⦁    ग्राम स्तर, ग्राम पंचायत, जिला स्तर पर जिला पंचायत। अन्तर्वर्ती पंचायत जो ग्राम और जिला पंचायतों के बीच होगी।
⦁    पंचायत के सभी स्थान पंचायत क्षेत्र के निर्वाचन क्षेत्र में प्रत्यक्ष निर्वाचन से चुने गये व्यक्तियों द्वारा भरे जाएँ।
⦁    अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण सुविधा के उनकी जनसंख्या के अनुपात में होगा।
⦁    प्रत्येक पंचायत में प्रत्यक्ष निर्वाचन से भरे जाने वाले कुल स्थानों में से स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित होंगे।

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