जैनेन्द्र कुमार महान् कथाकार हैं। ये व्यक्तिवादी दृष्टि से पात्रों का मनोविश्लेषण करने में कुशल हैं। प्रेमचन्द की परम्परा के अग्रगामी लेखक होते हुए भी इन्होंने हिन्दी कथा-साहित्य को नवीन शिल्प प्रदान किया। ‘ध्रुवयात्रा’ जैनेन्द्र कुमार की सामाजिक, मनोविश्लेषणात्मक, यथार्थवादी रचना है। कहानीकला के कतिपय प्रमुख तत्त्वों के आधार पर इस कहानी की समीक्षा निम्नवत् है-
(1) शीर्षक–कहानी का शीर्षक आकर्षक और जिज्ञासापूर्ण है। सार्थकता तथा सरलता इस शीर्षक की विशेषता है। कहानी का शीर्षक अपने में कहानी के सम्पूर्ण भाव को समेटे हुए है तथा प्रारम्भ से अन्त तक कहानी इसी ध्रुवयात्रा पर ही टिकी है। कहानी का प्रारम्भ नायक के ध्रुवयात्रा से आगमन पर होता है और कहानी का समापन भी ध्रुवयात्रा के प्रारम्भ के पूर्व ही नायक के समापन के साथ होता है। अत: कहानी का शीर्षक स्वयं में पूर्ण और समीचीन है।।
(2) कथानक-श्रेष्ठ कथाकार के रूप में स्थापित जैनेन्द्र कुमार जी ने अपनी कहानियों को कहानी- कला की दृष्टि से आधुनिक रूप प्रदान किया है। ये अपनी कहानियों में मानवीय गुणों; यथा-प्रेम, सत्य तथा करुणा; को आदर्श रूप में स्थापित करते हैं।
इस कहानी की कथावस्तु का आरम्भ राजा रिपुदमन की ध्रुवयात्रा से वापस लौटने से प्रारम्भ होता है। कथानक का विकास रिपुदमन और आचार्य मारुति के वार्तालाप, तत्पश्चात् रिपुदमन और उसकी अविवाहिता प्रेमिका उर्मिला के वार्तालाप और उर्मिला तथा आचार्य मारुति के मध्य हुए वार्तालाप से होता है। कहानी के मध्य में ही यह स्पष्ट होता है कि उर्मिला ही मारुति की पुत्री है। कहानी का अन्त और चरमोत्कर्ष राजा रिपुदमन द्वारा आत्मघात किये जाने से होता है।
प्रस्तुत कहानी में कहानीकार ने एक सुसंस्कारित युवती के उत्कृष्ट प्रेम की पराकाष्ठा को दर्शाया है तथा प्रेम को नारी से बिलकुल अलग और सर्वोच्च स्थान पर प्रतिष्ठित किया है। कहानी का प्रत्येक पात्र कर्तव्य के प्रति निष्ठा एवं नैतिकता के प्रति पूर्णरूपेण सतर्क दिखाई पड़ता है और जिसकी पूर्ण परिणति के लिए वह अपना जीवन अर्पण करने से भी नहीं डरता। कहानी मनौवैज्ञानिकता के साथ-साथ दार्शनिकता से भी ओत-प्रोत है और संवेदनाप्रधान होने के कारण पाठक के अन्तस्तल पर अपनी अमिट छाप छोड़ती हैं। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि ध्रुवयात्रा एक अत्युत्कृष्ट कहानी है।
(3) उद्देश्य-प्रस्तुत कहानी में कहानीकार जैनेन्द्र जी ने बताया है कि प्रेम एक पवित्र बन्धन है और विवाह एक सामाजिक बन्धन। प्रेम में पवित्रता होती है और विवाह में स्वार्थता। प्रेम की भावना व्यक्ति को उसके लक्ष्य तक पहुँचने में मदद करती है। उर्मिला कहती है, “हाँ, स्त्री रो रही है, प्रेमिका प्रसन्न है। स्त्री की मत सुनना, मैं भी पुरुष की नहीं सुनँगी। दोनों जने प्रेम की सुनेंगे। प्रेम जो अपने सिवा किसी दया को, किसी कुछ को नहीं जानता।”
निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि प्रेम को ही सर्वोच्च दर्शाना इस कहानी का मुख्य उद्देश्य है, जिसमें कहानीकार को पूर्ण सफलता मिली है।