भारतीय संविधान में संशोधन की विधि में बहुत दोष हैं, क्योंकि संशोधन विधि में बहुत-सी बातें स्पष्ट नहीं हैं, जिनमें मुख्य निम्नलिखित हैं –
1. सभी धाराओं में संशोधन करने के लिए राज्यों की स्वीकृति नहीं ली जाती – संविधान की सभी धाराओं में संशोधन करने के लिए राज्यों की स्वीकृति नहीं ली जाती, बल्कि कुछ ही धाराओं पर राज्यों की स्वीकृति ली जाती है। संविधान का अधिकांश हिस्सा ऐसा है, जिसमें संसद स्वयं ही संशोधन कर सकती है।
2. राज्यों के अनुसमर्थन के लिए समय निश्चित नहीं – संयुक्त राज्य अमेरिका की तरह संविधान में किए जाने वाले संशोधन को राज्यों द्वारा समर्थन अथवा अस्वीकृत के लिए भारतीय संविधान में कोई भी समय निश्चित नहीं किया गया है। भारत में अभी तक इस दोष को अनुभव नहीं किया गया, क्योंकि प्रायः एक ही दल का शासन केन्द्र तथा राज्यों में रहा है और आधे राज्यों का अनुसमर्थन आसानी से प्राप्त हो जाता है। परन्तु आज जिस प्रकार की स्थिति है, उससे यह दोष स्पष्ट हो जाता है।
3. संशोधन विधेयक को राज्यों के पास भेजने की भ्रमपूर्ण स्थिति – संविधान में यह भी स्पष्ट नहीं किया गया है कि क्या संविधान में संशोधनों के विधेयकों को सभी राज्यों को भेजा जाना आवश्यक है अथवा उसे उनमें से कुछ एक राज्यों को भेजा जाना पर्याप्त है। संविधान में संशोधन के तीसरे विधेयक को कुछ राज्यों की राय जानने से पूर्व ही पास कर दिया गया था। और मैसूर की विधानसभा ने इसके विरुद्ध आपत्ति की थी।
4. संशोधन प्रस्ताव पर राष्ट्रपति की स्वीकृति – संविधान के अनुच्छेद 368 के खण्ड 2 में कहा गया है कि जब किसी विधेयक को संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित कर दिया जाए, तो उसे राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा जाएगा उसके पश्चात् राष्ट्रपति विधेयक को अपनी सहमति प्रदान कर हस्ताक्षर कर देगा और तब संविधान संशोधन लागू माना जाएगा।
5. राज्यों को संशोधन प्रस्ताव प्रस्तुत करने का अधिकार नहीं – उल्लेखनीय है कि संविधान में संशोधन का प्रस्ताव केवल संघीय विधानमण्डलों अर्थात् संसद में ही प्रस्तुत किया जा सकता है। कोई भी राज्य विधानमण्डल ऐसा प्रस्ताव केवल उस अवस्था में कर सकता है, जब वह अनुच्छेद 169 के अन्तर्गत विधानपरिषद् को समाप्त करना अथवा उसकी स्थापना करना चाहता हो।
6. अनेक अनुच्छेदों का साधारण प्रक्रिया के द्वारा संशोधन सम्भव – संविधान की धाराएँ ऐसी हैं, जिनके लिए संवैधानिक सुरक्षा की आवश्यकता नहीं थी और संसद के साधारण बहुमत से संशोधन किए जाने से किसी प्रकार की हानि की सम्भावना नहीं थी। उदाहरण के लिए; धारा 224 द्वारा सेवानिवृत्त न्यायाधीश को न्यायालय में न्यायाधीश के पद पर कार्य करने का अधिकार दिया गया है। इस धारा को बदलने के लिए किसी विशेष तरीके को अपनाने की कोई आवश्यकता नहीं थी।
7. जनमत संग्रह की व्यवस्था नहीं – भारत में संविधान संशोधन की विधि ऐसी है, जिसमें जनता की अवहेलना हो सकती है, क्योंकि इसमें जनता की राय जानने की कोई व्यवस्था नहीं है। 44वें संशोधन विधेयक के अन्तर्गत यह व्यवस्था की गई है कि संविधान की मूल विशेषताओं को जनमत संग्रह द्वारा ही बदला जा सकता है। इस संशोधन को लोकसभा ने पारित कर दिया, परन्तु राज्यसभा ने इस संशोधन विधेयक की जनमत संग्रह की धारा को पास नहीं किया। राज्यसभा को यह विचार है कि भारत जैसे देश के लिए जनमत संग्रह करवाना बहुत कठिन है। और अव्यावहारिक भी है।
उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट है कि भारतीय संविधान की संशोधन प्रक्रिया इतनी जटिल नहीं है जितनी कि अमेरिका तथा स्विट्जरलैण्ड के संविधानों की है और न ही ब्रिटेन के संविधान के समान इतनी सरल है कि इसे साधारण प्रक्रिया से संशोधित किया जा सके। इस दृष्टिकोण से भारत के संविधान संशोधन की प्रक्रिया सरल तथा जटिल दोनों प्रकार की है। संशोधन की इस प्रक्रिया के कारण ही भारत का संविधान सामाजिक तथा आर्थिक विकास का सूत्रधार बना।