भारतीय नागरिकता
स्वाधीनता प्राप्ति से पूर्व भारत के नागरिक ब्रिटिश साम्राज्य के नागरिक कहलाते थे। लेकिन उन्हें वे सब अधिकार प्राप्त नहीं थे, जो उस समय एक अंग्रेज को प्राप्त थे। ब्रिटिश सरकार की अधीनता में भारतीयों को अनेक कठिनाइयों तथा असुविधाओं का सामना करना पड़ता था। अंग्रेज अधिकारी भारतीयों के साथ बड़ा अमानुषिक व्यवहार करते थे। भारतीयों की भाषण एवं प्रेस की स्वतन्त्रता पर भी अनेक प्रतिबन्ध लगे हुए थे। लेकिन 15 अगस्त, 1947 ई० के बाद भारतीयों को नागरिकता सम्बन्धी वे सभी अधिकार मिल गए जिनके माध्यम से वे देश के शासन प्रबन्ध में निर्णायक भूमिका निभाने लगे।
इकहरी नागरिकता
विश्व के सभी संघीय संविधानों में नागरिकों को दोहरी नागरिकता प्राप्त होती है-एक संघ सरकार की नागरिकता और दूसरी उस इकाई या राज्य (प्रान्त) की नागरिकता, जिसमें वह निवास करता है। लेकिन स्वतन्त्र भारत का संविधान संघात्मक होते हुए भी भारतीयों को इकहरी नागरिकता प्रदान करता है। इसका आशय यह है कि प्रत्येक भारतीय केवल भारत संघ का नागरिक, उस राज्य का नहीं जिसमें वह निवास करता है। भारतीय संविधान ने देश की अखण्डता को कायम रखने के लिए इकहरी नागरिकता की व्यवस्था को अपनाया है।
भारत का नागरिक होने का हकदार
भारतीय संविधान-निर्माताओं ने यह निश्चित नहीं किया था कि भविष्य में भारतीय नागरिकता किस प्रकार प्राप्त की जा सकती है तथा उसका लोप किस प्रकार सम्भव है। भारतीय संविधान में केवल यह वर्णित है कि 27 जनवरी, 1950 ई० को भारत के नागरिक कौन हैं। नागरिकता की प्राप्ति तथा उसके निर्णय और लुप्त होने के सम्बन्ध में संविधान ने भारतीय संसद को पूर्ण अधिकार प्रदान कर दिए हैं। इस प्रकार संविधान ने नागरिकता सम्बन्धी नियमों के निर्माण का एकाधिकार भारतीय संसद को सौंप दिया है।
भारतीय संविधान के लागू होने के समय नागरिकता सम्बन्धी सिद्धान्त निम्नवत् निर्धारित किए गए थे
⦁ जन्म- भारत राज्य क्षेत्र में जन्म लेने वाले प्रत्येक व्यक्ति को भारत संघ की नागरिकता प्राप्त होगी।
⦁ वंश- वे सभी व्यक्ति भारत संघ के नागरिक माने जाएँगे, जिनके माता-पिता में से किसी एक ने भारत राज्य क्षेत्र में जन्म लिया है।
⦁ निवास- वे सभी व्यक्ति भारत संघ के नागरिक होंगे, जो संविधान लागू होने के पाँच वर्ष पूर्व से भारत राज्य क्षेत्र के सामान्य निवासी थे।
⦁ शरणार्थी- पाकिस्तान से भारत आने वाले व्यक्तियों में से वे व्यक्ति भारत संघ के नागरिक माने जाएँगे-(अ) जो 19 जुलाई, 1948 ई० से पूर्व भारत चले आए थे और जिनके माता या पिता का जन्म अविभाजित भारत में हुआ था। (ब) जो 19 जुलाई, 1948 ई० के बाद भारत
आए हों और तत्कालीन भारत सरकार द्वारा पंजीकृत कर लिए गए हों।
⦁ भारतीय विदेशी- भारत के संविधान में ऐसे भारतीयों को भी नागरिकों की श्रेणी में पंजीकृत करने का उल्लेख है जो भारत राज्य क्षेत्र के बाहर किसी अन्य देश में निवास करते हों। उनके लिए निम्नलिखित दो शर्ते हैं-(अ) वे या उनके माता-पिता अथवा पितामह-पितामही में से कोई एक अविभाजित भारत में जन्में हों। (ब) उन्होंने अमुक देश में रहने वाले भारतीय राजदूत के पास भारत संघ का नागरिक बनने के लिए आवेदन-पत्र दे दिया हो और उन्हें भारतीय नागरिक पंजीकृत कर दिया गया हो।
भारतीय नागरिकता अधिनियम, 1955
भारतीय संसद ने सन् 1955 में भारतीय नागरिकता अधिनियम पारित किया। इस अधिनियम में भारतीय नागरिकता की प्राप्ति और उसके विलोपन के प्रकार को बताया गया है। इस अधिनियम के प्रावधान निम्नलिखित हैं–
भारतीय नागरिकता की प्राप्ति
⦁ जन्म- उने सभी व्यक्तियों को भारत संघ की नागरिकता प्राप्त होगी, जिनका जन्म 26 जनवरी, 1950 ई० के बाद भारत राज्य क्षेत्र के किसी भी भाग में हुआ हो।
⦁ पाकिस्तान से आगमन या प्रव्रजन- उन सभी व्यक्तियों को, जो 26 जुलाई, 1949 ई० के बाद भारते आए हों, भारत संघ की नागरिकता प्राप्त हो जाएगी, बशर्ते वे भारतीय नागरिकों के रजिस्टर में अपना नाम दर्ज करा लें और कम-से-कम एक वर्ष से भारत में अवश्य निवास | करते हों।
⦁ पंजीकरण- विदेशों में निवास करने वाले भारतीय भारत सरकार के दूतावास में अपना नाम पंजीकृत कराकर भारतीय संघ की नागरिकता प्राप्त कर सकते हैं।
⦁ विवाह- उन सभी विदेशी स्त्रियों को, जिन्होंने भारतीयों से विवाह किया है, भारत संघ की नागरिकता प्राप्त हो जाएगी।
⦁ आवेदन-पत्र- कोई भी विदेशी व्यक्ति आवेदन-पत्र देकर भारत संघ का नागरिक बन सकता है, लेकिन शर्त यह है कि वह अच्छे आचरण का हो, संविधान में वर्णित किसी एक भाषा का ज्ञाता हो, भारत में स्थायी रूप से निवास करने की इच्छा रखता हो और कम-से-कम एक वर्ष से भारत में लगातार रह रहा हो।
⦁ निवास अथवा नौकरी- राष्ट्रमण्डल के सदस्य देशों के वे नागरिक जो भारत में रहते हों या भारत में नौकरी करते हों, तो वे प्रार्थना-पत्र देकर भारतीय नागरिकता प्राप्त कर सकेंगे।
⦁ भूमि विस्तार- यदि किसी नए प्रदेश को भारत में मिला लिया जाता है, तो वहाँ के निवासियों को भारतीय नागरिकता प्राप्त हो जाएगी।
भारतीय नागरिकता संशोधन अधिनियम, 1986 तथा 1992
भारतीय नागरिकता अधिनियम, 1955 के प्रावधानों की सरलता का लाभ उठाकर जम्मू-कश्मीर, पंजाब और असम जैसे राज्यों में लाखों विदेशियों ने अनधिकृत रूप से भारत में प्रवेश कर भारतीय नागरिकता प्राप्त कर ली। अतः केन्द्र सरकार ने भारतीय नागरिकता संशोधन अधिनियम, 1986 पारित करके नागरिकता सम्बन्धी प्रावधानों को कठोर बना दिया।
सन 1986 के संशोधन अधिनियम के अनुसार कोई भी विदेशी जब तक कम-से-कम 10 वर्ष तक भारत ‘राज्य-क्षेत्र का निवासी नहीं रहा होगा, भारतीय नागरिकता प्राप्त नहीं कर सकेगा। भारतीय नागरिकता सम्बन्धी प्रावधानों को जम्मू-कश्मीर तथा असम राज्यों पर भी लागू किया गया। इस संशोधन अधिनियम में यह शर्त भी जोड़ दी गई है कि भारत में जन्म लेने वाले व्यक्ति को भारतीय नागरिकता तभी प्राप्त होगी, जबकि उसके माता-पिता में से कोई एक भारतीय नागरिक होगा।
सन् 1992 में भारतीय संसद ने नागरिकता से सम्बन्धित दूसरा संशोधन अधिनियम पारित होगा। इस संशोधन अधिनियम के अनुसार यह व्यवस्था की गई है कि विदेश में निवास कर रहे किसी भारतीय दम्पती के यदि कोई सन्तान उत्पन्न होती है, तो वह भारतीय नागरिक मानी जाएगी, बशर्ते कि दम्पती में से किस एक (पति या पत्नी) ने पहले से ही भारतीय नागरिकता प्राप्त कर रखी हो। इससे पूर्व केवल पति का ही भारतीय नागरिक होना अनिवार्य था।