समाज में पायी जाने वाली समानता एवं असमानता समाज में समानता एवं असमानता या भिन्नता दोनों पायी जाती हैं। कोई भी समाज ऐसा नहीं हैं जिसमें पूर्णतया समानता अथवा पूर्णतया असमानता पायी जाती हो। प्रत्येक समाज में दोनों ही बातें अनिवार्य रूप से पायी जाती है, परंतु समाज के संगठन के लिए असमानता का समानता के अंतर्गत पाया जाना अनिवार्य हैं। बाह्य दृष्टिकोण से दोनों परस्पर विरोधी प्रतीत होती है, पर वास्तविकता में ये परस्पर पूरक हैं। समानता व्यक्तियों में पाए जाने वाले सहयोग एवं संबंधों को प्रोत्साहन देती है। सामाजिक संबंधों की स्थापना के लिए यह अनिवार्य है कि व्यक्तियों में शारीरिक एवं मानसिक दोनों प्रकार की समानताएँ हों; क्योंकि इन समानताओं के परिणामस्वरूप ही उनकी आवश्यकताएँ भी समान होती हैं, इने । आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सामाजिक संबंधों की स्थापना होती है। गिडिंग्स ने समानता को ‘सजातीयता की भावना’ कहा है। मैकाइवर एवं पेज के अनुसार, “समाज का अस्तित्व उन्हीं लोगों में होता है जो एक-दूसरे से शरीर या मस्तिष्क के किसी अंश में समान हैं और इस तथ्य को जानने के लिए पर्याप्त निकट या बुद्धिमान है।”
समाज में यद्यपि समानता पायी जाती है, तथापि असमानता की उपेक्षा नहीं की जा सकती। प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे से भिन्नता रखता है। यह भिन्नता, आयु तथा शारीरिक क्षमता अदि.के भेदों के द्वारा उत्पन्न होती है तथा इसी के आधार पर समाज के समस्त व्यक्ति भिन्न-भिन्न कार्यों में लगे रहते हैं। यदि सभी व्यक्ति एक समान कार्य करने लगे तो समाज में संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी और सामाजिक व्यवस्था की निरंतरता खतरे में पड़ जाएगी। श्रम-विभाजन में पाई जाने वाली भिन्नता; असमानता की सूचक है। असमानता के कारण ही स्त्री-पुरुष आकर्षित होते हैं और परिवार की आधारशिला रखते हैं। विचारों, आदर्शो, दृष्टिकोणों आदि की भिन्नता से ही समाज की संस्कृति का विकास होता है। असमानता परस्पर सहयोग को बढ़ावा देकर समाज के संगठन को दृढ़ बनाती है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि समाज के लिए समानता और असमानता दोनों ही अनिवार्य हैं। समानता व्यक्तियों में अपनत्व तथा चेतना उत्पन्न करती हैं, और असमानता के आधार पर परस्पर संबंधों की स्थापना होती है; परंतु समाज में समानता प्रधान है, असमानता का स्थान गौण है।