शताब्दियों पूर्व कहा गया अरस्तू का यह वाक्य पूर्णतया सत्य है, “मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।” एक व्यक्ति जो समाज में अन्य व्यक्तियों के साथ तथा उनके मध्ये नहीं रहता, वह या तो देवता है। अथवा पशु।” अन्य शब्दों में, व्यक्ति के समाज से अलग रहकर जीवन व्यतीत करने की कल्पना नहीं की जा सकती। मनुष्य का जीवन, उसकी समृद्धि तथा प्रगति समाज में ही संभव हैं। परस्पर मिलकर सहयोग के साथ रहने की मनुष्य में जन्मजात प्रवृत्ति होती है। समाज में उसका जन्म, विकास और आवश्यकताओं की पूर्ति होती है और समाज में ही वह अंततः मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। समाज के बिना व्यक्ति का अस्तित्व संभव नहीं है, क्योंकि अपनी वश्यकताओं की पूर्ति वह स्वयं नहीं कर सकता। समाज ही समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा उसे एक जैविक प्राणी से सामाजिक प्राणी बनाता है। मनुष्य में प्रेम, आदेश देना, खेलना-पितृभाव, घृणा, क्रोध, मोह आदि भावनाएँ स्वाभाविक रूप से विद्यमान रहती है। इन सब भावनाओं की पूर्ति मनुष्य समाज में रहकर ही कर सकता है। मनुष्य समाज में रहकर सहयोग, सहिष्णुता, प्रेम आदि गुणों की प्राप्ति करता है। व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास समाज में रहकर ही संभव है। मनुष्य समाजीकरण के माध्यम से सांस्कृतिक मूल्यों को ग्रहण करता है। तथा सांस्कृतिक विरासत को आगे बढ़ाने का कार्य करता है। उसके ज्ञान में वृद्धि समाज में रहकर ही संभव है।