समाज का सामान्य अर्थ
सामान्य बोलचाल की भाषा में समाज’ शब्द का प्रयोग व्यक्तियों के समूह के लिए किया जाता है। उदाहरण के लिए ईसाई समाज’, ‘आर्य समाज’, ‘ब्रह्म समाज’, ‘धर्म समाज’, वैश्य समाज’, ‘विद्यार्थी समाज’ तथा ‘बाल-समाज’ आदि शब्दों का प्रयोग व्यक्ति इसी अर्थ में करते हैं। इनमें से अधिकांश शब्द, जिनके साथ समाज’ शब्द जोड़ दिया गया है, समाज न होकर संप्रदाय, वर्ण, सामाजिक श्रेणी, क्षेत्रीय समूह या विशिष्ट भाषा-भाषी समूह हैं। उदाहरणार्थ यदि कोई व्यक्ति यह कहे कि वह ईसाई समाज’ का सदस्य है तो यह गलत होगा। वह ईसाई समाज’ का नहीं अपितु ‘ईसाई संप्रदाय’ का सदस्य है। इसी भाँति, ‘आर्य समाज’ या ‘ब्रह्म समाज’ समाज न होकर विशिष्ट धार्मिक ‘संप्रदाय’ है। ‘वैश्य समाज का उदाहरण न होकर एक वर्ण है। ‘विद्यार्थी मिलकर समाज का निर्माण नहीं करते, अपितु एक सामाजिक श्रेणी का निर्माण करते हैं। कुछ लोग ‘समाज’ शब्द का प्रयोग व्यक्तियों के समूह के रूप में अथवा एक समिति यो संस्था के रूप में भी करते हैं। इसी कारण समाज के अर्थ के संबंध में काफी अनिश्चिता पायी जाती है।
समाज की परिभाषाएँ
विभिन्न समाजशास्त्रियों ने ‘समाज’ शब्द की निम्नलिखित परिभाषाएँ दी हैं-
⦁ गिडिंग्स (Giddings) के अनुसार- “समाज स्वयं एक संघ है, यह एक संगठन तथा औपचारिक संबंधों का योग है, जिसमें सहयोग देने वाले व्यक्ति एक-दूसरे से संबंधित होते हैं।”
⦁ मैकाइवर एवं पेज के अनुसार-“समाज रीतियों एवं कार्यप्रणालियों की अधिकार एवं पारस्परिक सहायता की, अनेक समूहों तथा विभागों की, मानव व्यवहार के नियंत्रणों तथा स्वतंत्रताओं की एक व्यवस्था है। इस सदैव परिवर्तनशील, जटिल व्यवस्था को हम समाज कहते हैं। यह सामाजिक संबंधों का जाल है।”
⦁ कूले (Cooley) के अनुसार-“समाज रीतियों या प्रक्रियाओं का एक जटिल ढाँचा है, जिसमें प्रत्येक जीवित है और दूसरों के साथ अंतक्रिया करते हुए बढ़ता है। इस प्रकार, जटिल संपूर्ण ढाँचे में एक ऐसी एकरूपता पायी जाती है कि जो एक भाग में होता है, उसका शेष भाग पर प्रभाव पड़ता है।”
⦁ रयूटर (Reuter) के अनुसार-“(समाज) एक अमूर्त धारणा है, जो एक समूह के सदस्यों के | बीच पाए जाने वाले सामाजिक संबंधों की संपूर्णता का बोध कराती है।” 5. पारसंस के अनुसार-“(समाज) को उन मानवीय संबंधों की संपूर्ण जटिलता के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो साधन-साध्य संबंधों के रूप में क्रिया करने से उत्पन्न हुए हों, चाहे वे यथार्थ हों या प्रतीकात्मक।”
उपर्युक्त विभिन्न परिभाएँ ‘समाज’ शब्द का समाजशास्त्रीय अर्थ तथा इसके विभिन्न पक्षों को स्पष्ट करती है। इन परिभाषाओं के अनुसार, केवल व्यक्तियों के समूह को ही समाज नहीं कहा जा सकता। वास्तव में, व्यक्ति सामाजिक प्राणी होने के नाते जिस संगठन को जन्म देता है, वह ‘समाज’ कहलाता . है। समाज सामाजिक संबंधों की व्यवस्था को कहा जाता है। ये संबंध उन सभी व्यक्तियों के बीच पाए जाते हैं, जो मानव समाज के संदस्य होते हैं। समाज का यह संगठन अपने सदस्यों के व्यवहारों तथा संबंधों को नियंत्रित और निर्देशित भी करता है। समाज में रहने वाले व्यक्ति परस्पर व्यवहार भी करते हैं, जिनके द्वारा उनमें परस्पर सामाजिक संबंधों की स्थापना होती है। ये सामाजिक संबंध इतने अधिक व्यापक संपूर्ण व जटिल होते हैं कि इनका वर्णन नहीं किया जा सकता। वास्तव में, समाज इन्हीं सामाजिक संबंध का जाल है। ये संबंध ही प्रत्येक व्यक्ति को अन्य व्यक्तियों से संबंधित एवं अन्योन्याश्रित करते हैं। सामाजिक संबंधों में निरंतरता पायी जाती है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए ई० बी० यूटर (E.B. Reuter) ने कहा है कि जिस प्रकार जीवन एक वस्तु नहीं है बल्कि जीवित रहने की एक प्रक्रिया है, उसी प्रकार समाज एक वस्तु नहीं बल्कि संबंध स्थापित करने की एक प्रक्रिया है।’ समाज सामाजिक संबंधों का ताना-बाना होने के कारण एक अमूर्त धारणा है। इससे सदस्यों में पाए जाने वाले सामाजिक संबंधों की संपूर्णता व जटिलता का भी पता चलता है।
समाज की प्रमुख विशेषताएँ
समाज की प्रकृति को स्पष्ट रूप से समझने के लिए यह आवश्यक है कि उसकी विशेषताओं का भी उल्लेख किया जाए। समाज में निम्नलिखित प्रमुख विशेषताएँ पायी जाती हैं-
1. अमूर्त संकल्पना–समाज का रूप मूर्त न होकर अमूर्त (Abstract) है। यह अपने आप में । विभिन्न सामाजिक संबंधों की व्यवस्था है। ये ऐसे संबंध हैं जिनसे कि लोग परस्पर जुड़े रहते हैं। सामाजिक संबंधों को देखा नहीं जा सकता अर्थात् वे अमूर्त होते हैं। सामाजिक संबंधों के अमूर्त होने के कारण ही समाज भी एक अमूर्त व्यवस्था है; क्योंकि समाज मूल रूप से सामाजिक संबंधों की एक व्यवस्था है।
2. केवल व्यक्तियों का समूह-मात्र नहीं-राइट को यह कथन पूर्णतया सत्य है कि “यह . (समाज) व्यक्तियों का समूह नहीं है, वरन् यह समूह के सदस्यों के मध्य स्थापित संबंधों की व्यवस्था है। वास्तव में समाज केवल व्यक्तियों का एक समूह नहीं है, वरन् मनुष्यों में जो पारस्परिक सामाजिक संबंध होते हैं उन्हीं की एक व्यवस्था अथवा जाल है। व्यक्तियों के एक समूह को समिति तथा समुदाय के नाम से पुकारा जा सकता है, समाज के नाम से नहीं।
3. समाज में समानता–सहयोग और पारस्परिक संबंध समाज के मुख्य आधार हैं, परंतु सहयोग और संबंध तब ही संभव हैं जबकि व्यक्तियों में समरूपता हो। सामाजिक संबंधों की स्थापना के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्तियों में शारीरिक एवं मानसिक दोनों प्रकार की समानताएँ हों; क्योंकि समानताओं के परिणामस्वरूप ही उनकी आवश्यकताएँ भी समान ही होती हैं। इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही सामाजिक संबंधों की स्थापना होती है। गिडिंग्स के मत में समाज को आधार ‘सजातीयता की भावना’ (Consciousness of kind) है।
4. समाज में असमानता–समाज में एकरूपता अथवा समानता के साथ ही विषमता या असमानता भी पाई जाती है। समाज के समस्त व्यक्तियों में वैयक्तिकं भिन्नता पाई जाती है। लिंग, आयु तथा शारीरिक क्षमता आदि के भेद सामाजिक संबंधों एवं जीवन में असमानता उत्पन्न करने के प्रमुख साधन हैं। इस विषमता या भेदों के कारण समाज के समस्त व्यक्ति | भिन्न-भिन्न कार्यों में लगे रहते हैं। यदि समस्त व्यक्ति एकसमान हों तो विभिन्न प्रकार के कार्य कैसे हो सकते हैं? यदि सभी व्यक्ति खेती का कार्य करने लग जाएँ तो समाज में अव्यवस्था फैल जाएगी और व्यक्तियों की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो सकेगी। श्रम-विभाजन के लिए भी विषमता या असमानता अनिवार्य है। इस कारण ही समाज का आर्थिक ढाँचा श्रम-विभाजन पर आधारित है, जिसमें व्यक्तियों के व्यवसाय व आर्थिक क्रियाएँ भिन्न-भिन्न होती हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि समाज के लिए समानता और विषमता (असमानता) दोनों ही आवश्यक हैं। समानता व्यक्तियों में अपनत्व तथा चेतना उत्पन्न करती हैं, जबकि विषमता के आधार पर परस्पर संबंधों की स्थापना होती है।
5. पारस्परिक जागरूकता—मनुष्यों में सामाजिक संबंधों की स्थापना के लिए यह आवश्यक है। | कि व्यक्तियों को एक-दूसरे के अस्तित्व को ज्ञान हो। यदि दो व्यक्ति एक-दूसरे से अनभिज्ञ एवं मुख मोड़े विपरीत दिशा में खड़े हैं तथा परस्पर अप्रभावित हैं, तो ऐसी दशा में उनमें सामाजिक संबंध स्थापित नहीं होंगे। अतः समाज की स्थापना का प्रश्न तब उत्पन्न होता है। जबकि इन व्यक्तियों को एक-दूसरे के अस्तित्व का ज्ञान होता है और वे परस्पर एक-दूसरे को प्रभावित करने लगते हैं। इस प्रकार, समाज के लिए व्यक्तियों का एक-दूसरे के अस्तित्व के प्रति जागरूक होना अनिवार्य है।
6. सहयोग एवं संघर्ष-समाज के सदस्यों में दो प्रकार के संबंध होते हैं—सहयोगपूर्ण और संघर्षमय। समाज का प्रमुख आधार सहयोग है। सहयोग के अभाव में समाज की कल्पनां भी नहीं की जा सकती। सहयोग के कारण ही श्रम-विभाजन सफल होता। सहयोग प्रत्यक्ष एवं परोक्ष (अप्रत्यक्ष) दोनों रूपों में पाया जाता है। सीमित क्षेत्र में सहयोग का प्रत्यक्ष रूप अधिक पाया जाता है तथा विस्तृत क्षेत्र में अप्रत्यक्ष सहयोग का अधिक महत्त्व होता है। सहयोग के साथ-साथ समाज में संघर्ष भी पाया जाता है। यह भी प्रत्यक्ष एवं परोक्ष (अप्रत्यक्ष) दोनों रूपों में पाया जाता है। कभी-कभी संघर्ष के द्वारा भी सहयोग की स्थापना के प्रयास किए जाते हैं। परिवार में पाए जाने वाले संबंध इसका उदाहरण हैं। परिवार में सहयोग और संघर्ष दोनों पाए जाते हैं, परंतु समाज का निरंतरता के लिए यह अनिवार्य है कि संघर्ष सहयोग के
अंतर्गत ही पाया जाए तथा कुछ सीमा से ऊपर होने पर इस पर नियंत्रण रखा जाए।
7. पारस्परिक निर्भरता—व्यक्तियों की अनेक आवश्यकताएँ होती हैं। आवश्यकताओं की पूर्ति के *लिए ही व्यक्तियों को एक-दूसरे पर निर्भर रहना पड़ता हैं। इसकी पूर्ति, बिना एक-दूसरे की सहायता के नहीं हो सकती। इस आधार पर व्यक्तियों में परस्पर निर्भरता उत्पन्न होती है तथा समाज का निर्माण होता हैं।
8. समाज और जीवन समाज और जीवन में परस्पर घनिष्ठ संबंध है। ठीक ही कहा जाता है कि जहाँ जीवन है, वहीं समाज है।” अन्य शब्दों में, समाज का संबंध केवल प्राणि-जगत से ही होता है। उसका निर्जीव जगत से कोई संबंध नहीं है। वैसे पशु और पक्षियों का भी समाज होता हैं, परंतु समाजशास्त्र का संबंध केवल मानव समाज से ही होता है। मानव समाज का स्तर पशु समाज के स्तर से अधिक ऊँचा होता है।
9. निरंतर परिवर्तनशीलता-समाज एवं उसके सदस्यों में व्याप्त संबंधों की व्यवस्था स्थिर न होकर परिवर्तनशील होती है। समाज में निरंतर परिवर्तन होते रहते हैं। मैकाइवर एवं पेज ने सामाजिक संबंधों की सदैव परिवर्तित होने वाली जटिल व्यवस्था को ही समाज कहा है। इनके शब्दों में, “यह सामाजिक संबंधों का जाल है तथा सदैव परिवर्तित होता रहता है।”
निष्कर्ष-उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि समाजशास्त्र में समाज’ शब्द का प्रयोग सामाजिक संबंधों के ताने-बाने के लिए किया जाता है। यह एक अमूर्त धारणा या व्यवस्था है। जनसंख्या का प्रतिपालन सदस्यों में कार्यों का विभाजन, समूह की एकता तथा सामाजिक व्यवस्था की निरंतरता समाज के प्रमुख तत्त्व हैं। प्रत्येक समाज में समानता व असमानता, पारस्परिक जागरूकता, सहयोग एवं संघर्ष, पारस्परिक निर्भरता एवं निरंतरता जैसी प्रमुख विशेषताएँ पायी जाती हैं।