प्रत्येक विषय की एक विशिष्ट शब्दावली होती है। यह शब्दावली कुछ संकल्पनाओं के रूप में होती है। संकल्पनाएँ न केवल विषयगत अर्थ को समझने में सहायक होती हैं, अपितु संबंधित विषय के ज्ञान को सामान्य ज्ञान से भिन्न भी करती हैं। समाजशास्त्र इसमें कोई अपवाद नहीं है। समाजशास्त्रीय अंवेषण एवं व्याख्या में संकल्पनाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान है। समाज, सामाजिक समूह, प्रस्थिति एवं भूमिका, सामाजिक स्तरीकरण, सामाजिक नियंत्रण, परिवार, नातेदारी, संस्कृति, सामाजिक संरचना इत्यादि समाजशास्त्र में प्रयोग की जाने वाली संकल्पनाएँ हैं जो संबंधित सामाजिक यथार्थता के अर्थ को स्पष्ट करती हैं। संकल्पनाएँ समाज में उत्पन्न होती हैं। जिस प्रकार समाज में विभिन्न प्रकार के व्यक्ति और समूह होते हैं, उसी प्रकार कई तरह की संकल्पनाएँ और विचार होते हैं। यदि माक्र्स के लिए वर्ग और संघर्ष समाज को समझने की प्रमुख संकल्पनाएँ थीं तो दुर्णीम के लिए सामाजिक एकता एवं सामूहिक चेतना मुख्य शब्द थे।
संकल्पना का अर्थ एवं परिभाषाएँ
संकल्पनाएँ प्रत्येक विषय में पाई जाती हैं तथा उनका प्रयोग समस्या के निर्माण करने और इसके समाधान के लिए किया जाता है। संकल्पना एक तार्किक रचना है जिसका प्रयोग एक अनुसंधानकर्ता आँकड़ों को व्यवस्थित करने एवं उनमें संबंधों का पता लगाने के लिए कार्य करता है। यह किसी अवलोकित घटना का भाववाचक अथवा व्यावहारिक रूप है। इन अमूर्त, रचनाओं अर्थात् संकल्पनाओं की सहायता से प्रत्येक विषय अपनी विषय-वस्तु समझने का प्रयास करता है। विभिन्न विद्वानों ने संकल्पना की परिभाषाएँ निम्नलिखित रूपों में प्रस्तुत की हैं-
मैक-क्लीलैण्ड (Me-Clelland) के अनुसार–-“विविध प्रकार के तथ्यों का एक आशुलिपि प्रतिनिधित्व हैं जिसका उद्देश्य अनेक घटनाओं को एक सामान्य शीर्षक के अंतर्गत मानकर, इस पर सोच-विचार कर कार्य सरल करना है।”
नान लिन (Nan Lin) के अनुसार–“संकल्पना वह शब्द है जिसे एक विशिष्ट अर्थ प्रदान किया गया है।”
गुड एवं हैट (Goode. and Hatt) के अनुसार-“अनेक बार यह भुला दिया जाता है कि संकल्पनाएँ इंद्रियों के प्रभाव, मानसिक क्रियाएँ अथवा काफी जटिल अनुभवों से निर्मित तार्किक रचनाएँ हैं।”
बर्नार्ड फिलिप्स (Bernard Philips) के अनुसार-“संकल्पनाएँ भाववाचक हैं जिनका प्रयोग एक वैज्ञानिक द्वारा प्रस्तावनाओं एवं सिद्धांतों के विकास के लिए निर्माण स्तंभों के रूप में किया जाता है। ताकि प्रघटनाओं की व्याख्या की जा सके तथा उनके बारे में भविष्यवाणी की जा सके। उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि संकल्पना किसी मूर्त प्रघटना का भाववाचक रूप है। अर्थात् संकल्पना स्वयं प्रघटना न होकर इसे (प्रघटना) समझने में सहायता देती है। एक संकल्पना कुछ प्रघटनाओं को चयन या प्रतिनिधित्व करती हैं जिन्हें एक श्रेणी में वर्गीकृत किया गया है। यह चयन न ही तो वास्तविक है और न ही कृत्रिम, अपितु इसकी उपयोगिता वैज्ञानिक ज्ञान के विकास के रूप में ऑकी जा सकती है। संकल्पना वास्तविक प्रघटना के कितनी निकटे हैं यह इस बात पर निर्भर करता है। कि सामान्यीकरण किस स्तर पर किया गया है। उच्च स्तर पर किए गए सामान्यीकरण को ही संकल्पना कहा गया है।
समाजशास्त्र में विशिष्ट शब्दावली और संकल्पनाओं के प्रयोग की आवश्यकता
समाजशास्त्र जैसे विषय में विशिष्ट शब्दावली और संकल्पनाओं के प्रयोग की आवश्यकता और भी अधिक है। इसका प्रमुख कारण यह है कि इस विषय में हम उन सब पहलुओं का अध्ययन करते हैं जो हमारे लिए नवीन या अजनबी नहीं है। हम समझते हैं कि हमें विवाह, परिवार, जाति, धर्म इत्यादि शब्दों को पता है। हो सकता है कि इन शब्दों का जो अर्थ हमें पता हो वह इन शब्दों की समाजशास्त्रीय व्याख्या में मेल न खाता हो। इसलिए समाजशास्त्र की विशिष्ट शब्दावली एवं संकल्पनाएँ। समाजशास्त्रीय ज्ञान को ‘सामान्य बौद्धिक ज्ञान’ अथवा ‘प्रकृतिवादी व्याख्या’ से भिन्न भी करती हैं। यदि कोई किसी से पूछे कि परिवार क्या है? इस शब्द से परिचित होने के बावजूद इसका अर्थ सरलता से व्यक्त नहीं किया जा सकता है। इसे स्पष्ट करने के लिए समाजशास्त्रियों ने इसकी ऐसी परिभाषाएँ दी हैं जो विभिन्न प्रकार के परिवार होते हुए भी इसका अर्थ स्पष्ट करने में सक्षम हैं। ऐसे ही असंख्य शब्द समाजशास्त्र में विशिष्ट संकल्पनाओं के रूप में प्रयोग किए जाते हैं। इन सबका अर्थ हमारे सामान्य ज्ञान से भिन्न होता है। समाजशास्त्र जैसे विषय को सामान्यत: छात्र-छात्राओं द्वारा अन्य विषयों की तुलना में सरल समझने का कारण भी यही भ्रम है।