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समाज के सदस्यों के रूप में आप समूहों में और विभिन्न समूहों के साथ अंतःक्रिया करते होंगे। समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से इन समूहों को आप किस प्रकार देखते हैं?

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व्यक्ति समाज में अकेला नहीं रहता, अपितु अतीतकाल से ही विभिन्न प्रकार के समूहों में रहता है। व्यक्ति का जन्म समूह में होता है और समूहों में ही उसकी सामाजिक और अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि मनुष्य के जीवन में सामाजिक समूहों का विशेष महत्त्व है। इन्हीं समूहों के साथ अन्त:क्रिया के परिणामस्वरूप उसका व्यक्तित्व विकसित होता है। मानव एक सामाजिक प्राणी है। इसका अर्थ ही यह है कि वह अन्य व्यक्तियों के साथ मिलकर रहताहै। समूह में रहने से व्यक्ति को अनेक लाभ होते हैं; अर्थात् समूह में रहने से उसके अनेक कार्य सरलता से पूरे हो जाते हैं तथा उसकी अनेक मूलप्रवृत्तियाँ संतुष्ट हो जाती हैं। इन समूहों से ही समाज का निर्माण होता है।

समाजशास्त्र मानव के सामाजिक जीवन का अध्ययन करता है। मानवीय जीवन की एक पारिभाषिक विशेषता यह है कि मनुष्य परस्पर अंत:क्रिया एवं संवाद करते हैं तथा सामाजिक सामूहिकता का निर्माण करते हैं। समाज चाहे प्राचीन हो चाहे आधुनिक, सभी में समूहों एवं सामूहिकताओं के प्रकार अलग-अलग होते हैं। समाजशास्त्री ‘सामाजिक समूह’ शब्द का प्रयोग विशिष्ट अर्थों में करते हैं। इसलिए सामाजिक समूह के समाजशास्त्रीय अर्थ को समझना आवश्यक है।

समाजशास्त्र में व्यक्तियों के संकलन मात्र को सामाजिक समूह नहीं कहा जा सकता है। व्यक्तियों को संकलन मात्र या समुच्चय या केवल ऐसे लोगों का जमावड़ा होता है जो एक ही स्थान पर होते हैं परंतु उनमें निश्चित संबंध नहीं पाए जाते हैं। उदाहरणार्थ-रेलवे स्टेशन या बस अड्डे पर प्रतीक्षा कस्ते । यात्री या सिनेमा देखते दर्शक, समुच्चयों के उदाहरण है। ऐसे समुच्चय अर्द्ध-समूह तो हैं परन्तु इन्हें समाजशास्त्रीय शब्दावली में सामाजिक समूह नहीं कहा जा सकता। अर्द्ध-समूहों में संरचना अथवा संगठन का अभाव पाया जाता है तथा इनके सदस्य समूह के अस्तित्व के प्रति अनभिज्ञ होते हैं। सामाजिक वर्गों, प्रस्थिति, समूहों, आयु एवं लिंग समूहों, भीड़ इत्यादि अर्द्ध-समूह के उदाहरण हैं। जब कुछ व्यक्ति एक स्थान पर रहते हैं और उनमें किसी-न-किसी प्रकार की दीर्घकालीन एवं स्थायी । अंत:क्रिया (Interaction) होती है तो इन अंतःक्रियाओं के स्थिर प्रतिमान समूह का निर्माण करते हैं। समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से दीर्घकालीन एवं स्थायी अंत:क्रिया के अतिरिक्ति सामाजिक समूह के लिए। चार प्रमुख तत्त्वों का होना आवश्यक है–प्रथम सदस्यों में सामान्य रुचि के कारण पारस्परिक संबंध । या निकटता का होना, द्वितीय, सामान्य मूल्यों एवं प्रतिमानों को अपनाना, तृतीय, एक-दूसरे के प्रति पहचान एवं जागरूकता के कारण अपनत्व की भावना का होना तथा चतुर्थ, एक संरचना की विद्यमानता। एडवर्ड सापियर (Edward Sapir) का कथन है कि समूह का निर्माण इस तथ्य पर आधारित है कि कोई-न-कोई स्वार्थ उस समूह के सदस्यों को एकसूत्र में बाँधे रखता है। 

ऑगबर्न एवं निमकॉफ (Ogburm and Nimkoff) के अनुसार, “जब दो या दो से अधिक व्यक्ति एक साथ मिलकर रहें और एक-दूसरे पर प्रभाव डालने लगें तो हम कह सकते हैं कि उन्होंने समूह का निर्माण कर लिया है।”

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि हम अनेक समूहों में अपना जीवन व्यतीत करते हैं तथा उनके सदस्यों के साथ अंतःक्रिया करते हैं। इस भाँति, समाजशास्त्र में सामाजिक समूहों को व्यक्तियों का संकलन मात्र या समुच्च या केवल ऐसे लोगों का जमावड़ा नहीं मानते हैं। यदि सदस्यों में स्थायी अंत:क्रिया हैं, अंतःक्रियाओं के स्थिर प्रतिमान हैं तथा सदस्यों में एक-दूसरे के प्रति चेतना है, तभी इसे सामाजिक समूह कहा जाएगा।

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