एक जटिल समाज में विभिन्न व्यक्तियों के मध्य सामाजिक अंतः क्रियाएँ निरंतर होती रहती है। सामाजिक अंत:क्रियाएँ वैयक्तिक नहीं होती वरन् पद के अनुरूप व प्रस्थिति से संबंधित होती है। जिस प्रकार कोशिका-कोशिका मिलकर शरीर का ढाँचा निर्मित करती हैं, उसी प्रकार व्यक्ति-व्यक्ति के बीच अंत:संबंधों के द्वारा सामाजिक संरचना का निर्माण होता है। यह संरचना ही मानवीय अंत:क्रियाओं को सुविधाजनक और संभव बनाती है।। वस्तुतः ये पारस्परिक अंत:क्रियाएँ ही समाज, संस्कृति और व्यक्तित्व की मूलाधार हैं। प्रस्थिति.एवं भूमिका को सामाजिक संरचना की लघुक्म इकाई माना जाता है।
सामाजिक प्रस्थिति का अर्थ
किसी समाज या समूह में कोई व्यक्ति, निर्दिष्ट समय में जो स्थान प्राप्त करता है उसे प्रस्थिति कहा जाता है, परंतु यह सामाजिक पद का अधिकार पक्ष ही है क्योंकि प्रस्थिति से व्यक्ति के अधिकारों को बोध होता है। सामाजिक प्रस्थिति को समूह के संदर्भ में न देखकर व्यक्ति के सन्दर्भ में देखा जाता है। बीरस्टीड (Bierstedt) ने समाज को ‘प्रस्थितियों का ताना-बाना’ (Network of statuses) कहा है। सैद्धांतिक स्तर पर प्रस्थिति को दो अर्थों में स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है—-प्रथम अर्थ में इससे । एक निश्चित क्रम का पता चलता है। अर्थात् इससे उच्च यो निम्न भाव प्रकट होते हैं; जैसे किसी ऑफिस में बड़े बाबू को अन्य बाबुओं से अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। दूसरे अर्थ में इससे किसी प्रकार के क्रम का आभास नहीं होता है, जैसे वैवाहिक या आयु प्रस्थिति समाज में व्यक्तियों की प्रस्थिति का निर्धारण सामाजिक नियमों के अनुसार होता है। किंग्स्ले डेविस (Kingsley Davis) के अनुसार, “प्रस्थिति किसी भी सामान्य संस्थात्मक व्यवस्था में किसी पद की सूचक हैं, ऐसा पद जो समाज द्वारा स्वीकृत है और जिसका निर्माण स्वतः ही होता है तथा जो जनरीतियों व रूढ़ियों से संबंद्ध है।” इस प्रकार, प्रस्थिति से तात्पर्य सामाजिक स्थिति तथा उससे जुड़े निश्चित अधिकारों एवं कर्तव्यों से है। उदाहरणार्थ-माँ की एक प्रस्थिति होती है, जिसमें आचरण के कई मानक होते हैं। और साथ ही निश्चित जिम्मेदारियाँ और विशेषाधिकार भी होते हैं। किसी भी व्यक्ति की एक से अधिक प्रस्थितियाँ हो सकती है। माता की अन्य प्रस्थितियों में ‘पत्नी’, ‘पुत्रवधु’ ‘बहन’, ‘चाची’, ‘मामी’, ‘अध्यापिका आदि को सम्मिलित किया जा सकता है।
सामाजिक भूमिका का अर्थ
भूमिका का तात्पर्य कार्य से होता है। इसका निर्धारण व्यक्ति के पद अथवा प्रस्थिति के अनुसार होता है। भूमिका को प्रस्थिति से अलग नहीं किया जा सकता, क्योंकि बिना भूमिका के किसी प्रस्थिति की। कल्पना भी नहीं की जा सकती हैं। इसलिए भूमिका प्रस्थिति का गत्यात्मक पक्ष है। उदाहरणार्थ—किसी कॉलेज के अमुक प्रोफेसर का होना उसकी प्रस्थिति का द्योतक है, जबकि उसके द्वारा शिक्षार्थियों को पढ़ाना या परीक्षा संबंधित कार्य करना उसकी भूमिका है। यह बात ध्यान देने योग्य हैं कि प्रत्येक कार्य भूमिका नहीं कहा जाता है। उदाहरणार्थ–भोजन करना एक सामान्य कार्य तो है परंतु भूमिका नहीं है। केवल उसी कार्य को भूमिका कहा जाता है जो कोई व्यक्ति सामाजिक नियमों एवं मानदण्डों को ध्यान । में रखकर करता है। माता-पिता द्वारा बच्चों को स्नेह प्रदान करना उनकी सामाजिक भूमिका है, परंतु बच्चों द्वारा माता-पिता का अपमान करना उनकी भूमिका नहीं है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि भूमिका व्यक्तियों के व्यवहार की एक प्रणाली का नाम है। कोई भी व्यक्ति पिता, पुत्र, शिक्षक, शिक्षार्थी, ग्राहक इत्यादि के रूप में जो व्यवहार करता है वहीं उसकी भूमिका कहीं जाती है। इलियट एवं मैरिट (Elliott and Merrill) के अनुसार, “भूमिका वह कार्य है जिसे वह (व्यक्ति) प्रत्येक प्रस्थिति के अनुरूप निभाता है।”
इस प्रकार, भूमिका प्रस्थिति का सक्रिय या व्यावहारिक पक्ष है। प्रस्थितियाँ ग्रहण की जाती हैं, जबकि भूमिकाएँ निभाई जाती हैं। इसीलिए प्रस्थिति को कई बार संस्थागत भूमिका’ भी कहा जाता है। प्रस्थिति की भाँति व्यक्ति की अनेक भूमिकाएँ होती हैं। छात्र-छात्रा होना आपकी प्रस्थिति है तथा शिक्षा संस्थान में इस प्रस्थिति के अनुरूप आपसे जिस व्यवहार एवं जिम्मेदारी की आशा की जाती है वह आपकी भूमिका है। छात्र-छात्रा के अतिरिक्त, आपकी प्रस्थिति भाई-बहन के रूप में भी हो सकती है और इस नाते अलग-अलग भूमिकाएँ भी। जब आप पढ़ने के बाद नौकरी करने लगेंगे तो आपको एक नई प्रस्थिति प्राप्त हो जाएगी जिसके अनुसार आपको अपनी भूमिका को निभाना होगा। कई बार व्यक्ति की तिभिन्न भूमिकाओं में सामंजस्य का अभाव पाया जाता है तथा इससे भूमिका संघर्ष विकसित हो जाती है। उदाहरणार्थ-एक कामकाजी महिला के लिए घर-गृहस्थी की भूमिका एवं दफ्तर की भूमिका में असामंजस्य, उसमें भूमिका संघर्ष विकसित कर सकता है।