प्रारंभ में जाति, वर्ग, महिलाएँ, जनजाति या गाँव सामाजिक समूह नहीं थे क्योंकि इनमें सामाजिक समूह के तत्त्वों को अभाव पाया जाता था। उदाहरणार्थ-जाति या वर्ग ऐसे अर्द्ध-समूह हैं। जिनमें संरचना अथवा संगठन की कमी पाई जाती थी तथा जिसके सदस्य समूह के अस्तित्व के प्रति अनभिज्ञ अथवा कम जागरूक होते थे। लिंग के आधार पर जब महिलाओं ने अपनी स्वतंत्रता एवं समानता हेतु संगठन बनाकर आंदोलन प्रारंभ किए तब उनमें सामाजिक समूह के लक्षण विकसित होने लगे। इसी भाँति, जाति के आधार पर यदि किसी राजनीतिक दल का निर्माण होता है अथवा कोई जाति विरोधी आंदोलन प्रारंभ होता है तो जाति के सदस्यों में अपने समूह के प्रति चेतना विकसित होती है। तथा उनमें अपने हितों की रक्षा हेतु अंत:क्रियाओं के स्थिर प्रतिमान भी विकसित होते हैं। अपनत्व की भावना का विकास भी इसी का प्रतिफल माना जाता है। जनजाति सामाजिक समूह न होकर एक विशेष प्रकार का समूह है जिसे समाजशास्त्रीय शब्दावली में ‘समुदाय’ कहा जाता है। जनजाति के लोगों में वैयक्तिक, घनिष्ठ और चिरस्थायी संबंध पाए जाते हैं। इसी भाँति, गाँव भी एक समुदाय है। यदि ग्रामवासी पर्यावरण संबंधी किसी संगठन का निर्माण कर लेते हैं तो समुदाय के भीतर ही समूहों का विकास होना प्रारंभ हो जाता है।