सामाजिक समूहों के जितने भी वर्गीकरण विद्वानों ने किए हैं, उनमें प्राथमिक और द्वितीयक समूह के वर्गीकरण को विशेष महत्त्व दिया जाता है, जिसका आधार सामाजिक संबंधों की प्रकृति है। इस वर्गीकरण के प्रतिपादक अमेरिकी समाजशास्त्री चार्ल्स हार्टन कूले (Charles Horton Cooley) हैं। उन्होंने 1909 ई० में अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक ‘सोशल ऑर्गनाइजेशन’ (Social Organization) में इसका विस्तार से उल्लेख किया है। प्राथमिक समूह के सदस्यों की संख्या सीमित होती है तथा उनके आपसी संबंध अधिक घनिष्ठ होते हैं। इसके विपरीत, द्वितीयक समूह के सदस्यों की संख्या अधिक होती है, परंतु उनके आपसी संबंध अधिक घनिष्ठ नहीं हो पाते।
प्राथमिक समूह का अर्थ एवं परिभाषाएँ
प्राथमिक समूह वे समूह हैं, जिनमें लघु आकार के कारण व्यक्ति परस्पर एक-दूसरे से भली प्रकार परिचित होते हैं। अन्य शब्दों में, जिसे समूह में प्राथमिक संबंध पाएँ जाते हैं, उसे प्राथमिक समूह कहते हैं। इस प्रकार प्राथमिक समूह के सदस्यों में परस्पर घनिष्ठता होती है और वे परस्पर एक-दूसरे के सम्मुख आकर मिलते-जुलते हैं। व्यक्ति के लिए इनका अत्यधिक महत्त्व होता है, इस कारण प्रत्येक . व्यक्ति इनके प्रति बहुत निष्ठा रखता है। परिवार खेल-समूह और स्थायी पड़ोस प्राथमिक समूह के
प्रमुख उदाहरण हैं।
प्रमुख विद्वानों ने प्राथमिक समूह को निम्नवत् परिभाषित किया है-
कूले (Cooley) के अनुसार-“प्राथमिक समूहों से तात्पर्य उन समूहों से है, जो आमने-सामने के संबंध एवं सहयोग द्वारा लक्षित हैं। ये अनेक दृष्टियों से प्राथमिक हैं, परंतु मुख्यतया इस कारण हैं कि ये एक व्यक्ति की सामाजिक प्रकृति और आदर्शों के बनाने में मुख्य हैं। घनिष्ठ संबंधों के फलस्वरूप वैयक्तिकताओं का एक सामान्य समग्रता में इस प्रकार घुल-मिल जाना, जिससे कम-से-कम अनेक बातों के लिए एक सदस्य का उद्देश्य सारे समूह का सामान्य जीवन और उद्देश्य हो जाता है। संभवतः इस संपूर्णता का सरलतापूर्वक वर्णन ‘हमारा समूह’ कहकर किया जा सकता है। इसमें इस प्रकार की सहानुभूति और पारस्परिक अभिज्ञान है, जिसके लिए हम सबसे अधिक स्वाभाविक अभिव्यंजना है।”
यंग (Young) के अनुसार-“इसमें घनिष्ठ (आमने-सामने के) संपर्क होते हैं और सभी व्यक्ति समरूप कार्य करते हैं। ये ऐसे केंद्र-बिंदु हैं, जहाँ से व्यक्ति का व्यक्तित्व विकसित होता है।”
कुंडबर्ग (Lundberg) के अनुसार-“प्राथमिक समूहों का तात्पर्य दो या दो से अधिक ऐसे व्यक्तियों से है, जो घनिष्ठ, सहभागी और वयैक्तिक ढंग से एक-दूसरे से व्यहार करते हैं।”
जिसबर्ट (Gisbert) के अनुसार-“प्राथमिक या आमने-सामने के समू, प्रत्यक्ष व्यक्तिगत संबंधों पर
आधारित होते हैं, इनमें सदस्य परस्पर तुरंत व्यवहार करते हैं।” इस परिभाषा द्वारा स्पष्ट होता है कि प्राथमिक समूह के विभिन्न सदस्यों के आपसी संबंध प्रत्यक्ष तथा व्यक्तिगत होते हैं, उनमें औपचारिकता नहीं होती।
इंकलिस (Inkeles) के अनुसार—“प्राथमिक समूहों में सदस्यों के संबंध भी प्राथमिक होते हैं, जिनमें व्यक्तियों में आमने-सामने के संबंध होते हैं तथा सहयोग और सहवास की भावनाएँ इतनी प्रबल होती हैं, कि व्यक्ति का ‘अहम’, ‘हम’ की भावना में बदल जाता है।”
उपर्युक्त परिभाषाओं का अध्ययन करने से स्पष्ट हो जाता है कि इन समूहों को प्राथमिक समूह इस कारण से कहा जाता है क्योंकि इन समूहों में परस्पर घनिष्ठता, सहयोग, एकता तथा प्रेम का अत्यंत स्वाभाविक रूप से विकास होता है। ये सदस्य अपने लिए ‘हम’ शब्द का प्रयोग करते हैं तथा इनके परस्पर संबंध प्रत्यक्ष होते हैं। प्राथमिक समूह में ही व्यक्ति अपने भावी जीवन के लिए पाठ पढ़ता है। प्रेम, न्याय, उदारता तथा सहानुभूति जैसे गुणों की जानकारी व्यक्ति को प्राथमिक समूहों में ही मिलती है। कूले ने परिवार, पड़ोस एवं क्रीड़ा समूह को प्रमुख प्राथमिक समूह माना है।
प्राथमिक समूह की प्रमुख विशेषताएँ
प्राथमिक समूह की विशेषताएँ दो भागों में विभाजित की जा सकती हैं-
(अ) बाह्य या भौतिक विशेषताएँ तथा
(ब) आंतरिक विशेषताएँ। इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है–
(अ) बाह्य या भौतिक विशेषताएँ
⦁ भौतिक निकटता-प्राथमिक समूह के सदस्य एक-दूसरे के सम्मुख होकर मिलते-जुलते और संपर्क स्थापित करते हैं। आमने-सामने देखने और परस्पर वार्तालाप करने से विचारों का आदान-प्रदान होता है और सदस्य एक-दूसरे के निकट आते हैं। इस प्रकार की भौतिक निकटता प्राथमिक समूहों के विकास में परम सहायक होती हैं। इसी भौतिक निकटता को किंग्सले डेविस जैसे विद्वानों ने शारीरिक समीपता’ कहा है।
⦁ समूह की लघुता–प्राथमिक समूह की दूसरी विशेषता उसका लघु स्वरूप है। समूह की लघुता के कारण ही सदस्यों में घनिष्ठता का निर्माण होता है। प्राथमिक समूह के छोटे होने से सदस्यों में परस्पर मिलने-जुलने और परस्पर निकट आने के पर्याप्त अवसर मिलते हैं। प्राथमिक समुह के सदस्यों की संख्या कम होती है। कुले (Cooley) ने इसके सेर्दस्यों की संख्या 2 से 25 तक जबकि फेयरचाइल्ड ने 3-4 से लेकर 50-60 तक बताई है।
⦁ स्थायित्व प्राथमिक समूह अन्य समूहों की अपेक्षा अधिक स्थायी होते हैं। समूह के सदस्यों के संबंध की अवधि पर्याप्त दीर्घ होती है और इसी कारण उसमें अधिक घनिष्ठता होती है। घनिष्ठ संबंध अधिक समय तक बने रहते हैं, अत: प्राथमिक समूह अपेक्षाकृत अधिक स्थायी होते हैं।
(ब) आंतरिक विशेषताएँ।
प्राथमिक समूह की आंतरिक विशेषताओं को संबंध उन प्राथमिक संबंधों से होता है, जो इन समूहों में पाए जाते हैं। इस वर्ग की मुख्य विशेषताएँ निम्नवर्णित है-
⦁ संबंधों की स्वाभाविकता—इन समूहों में संबंधों की स्थापना स्वेच्छा से होती है, बलपूर्वक | नहीं। ये संबंध स्वाभाविक रूप से विकसित होते हैं; उनमें कृत्रिमता नहीं होती।
⦁ संबंधों की पूर्णता-प्राथमिक समूहों में व्यक्ति पूर्णतयां भाग लेता है। इसका मूल कारण सदस्यों की परस्पर घनिष्ठता एवं एक-दूसरे के प्रति पूर्ण जानकारी है। संबंधों में पूर्णता के कारण सदस्यों में परस्पर प्रेम-भावना पर्याप्त मात्रा में विकसित हो जाती है।
⦁ वैयक्तिक संबंध–प्राथमिक समूहों के समस्त सदस्यों के परस्पर संबंध व्यक्तिगत होते हैं। वे एक-दूसरे से पूर्णतया परिचित होते हैं तथा एक-दूसरे के नाम तथा परिवार के बारे में भी पूर्ण ज्ञान रखते हैं।
⦁ उद्देश्यों में समानता–प्रत्येक प्राथमिक समूह के सदस्य एक ही स्थान पर रहते हैं अतः उनके जीवन के मुख्य उद्देश्यों में भी समानता रहती है।
⦁ हम की भावना-प्राथमिक समूह छोटे होते हैं, सदस्यों में घनिष्ठता होती है और उनके उद्देश्यों में समानता होती है अतः उनमें ‘हम की भावना का विकास हो जाता है। प्रत्येक सदस्य में एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति होती है।
⦁ संबंध स्वयं साध्य होते हैं—प्राथमिक समूहों में कोई भी आदर्श या संबंध साधन के रूप में न होकर स्वयं साध्य होता है। यदि विवाह धन प्राप्ति के उद्देश्य से किया गया है तो वह विवाह न होकर अर्थ-पूर्ति का कार्य माना जाएगा। इन समूहों में संबंध किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए न होकर प्राकृतिक रूप से उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार यदि कोई मित्रता स्वार्थ पूर्ति के लिए करता है तो उसे हम मित्रता न कहकर स्वार्थपरता कहेंगे। इसी प्रकार संबंधों का कोई उद्देश्य न होकर वे स्वयं साध्य होते हैं।
⦁ सामाजिक नियंत्रण के साधन–प्राथमिक समूहों की एक उल्लेखनीय विशेषता यह है कि ये सामाजिक नियंत्रण के प्रभावशाली साधन होते हैं। उनके द्वारा अनौपचारिक रूप से सामाजिक नियंत्रण लागू किया जाता है।
उपर्युक्त विवरण से यह पूर्णतः स्पष्ट हो जाता है कि प्राथमिक समूहों का हमारे जीवन में एक विशेष स्थान है। प्राथमिक समूह प्रत्येक व्यक्ति का समाजीकरण करते हैं तथा उसको मानसिक और सामाजिक सुरक्षा प्रदान करते हैं। व्यक्ति के बचपन में लालन-पालन का कार्य प्राथमिक समूह द्वारा ही होता है। व्यक्ति की अनेक भौतिक, शारीरिक एवं भावात्मक आवश्यकताएँ मुख्य रूप से प्राथमिक समूहों में ही पूरी होती हैं।