‘सामाजिक समूह’ समाजशास्त्र की एक प्राथमिक संकल्पना है। सामाजिक समूह व्यक्तियों को संकलन मात्र नहीं है। जब किसी समुह एक-दूसरे के प्रति सचेत होते हैं तथा एक-दूसरे के साथ दीर्घकालीन अंतःक्रियाएँ करते हैं तो सामाजिक समूह का निर्माण होता है। सामाजिक समूह का एक अपना ढाँचा भी होता है। इसलिए सामाजिक समूह का समाजशास्त्रीय अर्थ इसके सामान्य अर्थ से भिन्न है।
सामाजिक समूह का अर्थ एवं परिभाषाएँ
‘समूह’ का शाब्दिक अर्थ ऐसे व्यक्तियों का संकलन है, जो परस्पर एक-दूसरे के अत्यधिक निकट हैं। या संबंधित हैं। एक समूह में कुछ वृक्ष, पशु-पक्षी, मनुष्य या कोई निर्जीव पदार्थ भी हो सकते हैं, जबकि सामाजिक समूह सजीव प्राणियों में ही होते हैं। विभिन्न विद्वानों ने सामाजिक समूह की परिभाषा निम्नलिखित रूपों में प्रस्तुत की है–
मैकाइवर एवं पेज (Maclver and Page) के अनुसार-“समूह से हमारा तात्पर्य मनुष्यों के किसी भी ऐसे संग्रह से है, जो सामाजिक संबंधों द्वारा एक-दूसरे से बँधे हों।”
विलियम के अनुसार–“एक सामाजिक समूह व्यक्तियों के उस निश्चित संग्रह को कहते हैं जो परस्पर संबंधित क्रियाएँ करते हैं और जो इस अंत:क्रिया की इकाई के रूप में ही स्वयं या दूसरों के द्वारा मान्य होते हैं।”
लैंडिस (Landis) के अनुसार–“जहाँ दो से अधिक व्यक्ति सामाजिक संबंध स्थापित करते हैं, वहाँ समूह होता है।”
बोगार्डस (Bogardus) के अनुसार-“एक सामाजिक समूह दो अथवा दो से अधिक व्यक्तियों की संख्या को कहते हैं, जिनका ध्यान कुछ सामान्य उद्देश्यों पर हो और जो एक-दूसरे को प्ररेणा दें, जिनमें समान आस्था हो और जो समान क्रियाओं में सम्मिलित हों।”
एलड्रिज एवं मैरिल (Eldridge and Merril) के अनुसार-“सामाजिक समूह की परिभाषा ऐसे दो या अधिक व्यक्तियों के रूप में की जा सकती है, जिनमें पर्याप्त अवधि या समय से संचार है और जो किसी सामान्य कार्य या प्रयोजन के अनुसार कार्य करें।
हॉट एवं रेस के अनुसार–“समूह अंत:क्रिया में संलग्न व्यक्तियों का एक संगठित संग्रह है।” उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट होता है कि जब दो या दो से अधिक व्यक्ति किसी लक्ष्य या उद्देश्य हेतु एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं या अंत:क्रिया करते हैं और इससे उनके बीच सामाजिक संबंध स्थापित होते हैं तो ऐसे व्यक्तियों के संकलन को समूह कहा जा सकता है। इस प्रकार, एक सामाजिक समूह मनुष्यों के उस निश्चित संकलन को कहते हैं, जो अंतःसंबंधित भूमिकाओं को अदा करते हैं और जो अपने या दूसरों के द्वारा अंत:क्रिया की इकाई के रूप में स्वीकृत होते हैं। समूह के सदस्य अपने एवं अन्य समूहों के सदस्यों के साथ स्वीकृत साधनों का प्रयोग करते हुए निरंतर एवं स्थायी अंत:क्रिया करते हैं।
सामाजिक समूह की प्रमुख विशेषताएँ
सामाजिक समूह की संकल्पना को इसकी निम्नलिखित विशेषताओं द्वारा और अधिक स्पष्ट किया जा सकता है-
⦁ व्यक्तियों का संग्रह–समूह का निर्माण दो या दो से अधिक ऐसे व्यक्तियों से होता है जो समूह के प्रति सचेत होते हैं तथा जिनके मध्य किसी-न-किसी प्रकार की अंत:क्रिया पाई जाती है।
⦁ सदस्यों में परस्पर संबंध–समूह के सदस्यों में परस्पर एक-दूसरे के साथ संबंध पाए जाते हैं। दूसरे शब्दों में, दो या दो से अधिक व्यक्तियों के इन्हीं सामाजिक संबंधों को समूह का नाम दिया जाता है।
⦁ सदस्यों में एकता की भावना—प्रत्येक समूह में एकता की भावना का होना आवश्यक है। इसमें समूह के लोग एक-दूसरे को अपना समझते हैं और आपस में सहानुभूति रखते हैं।
⦁ सदस्यों के व्यवहार में संमानता–स्वार्थों, आदर्शों और मूल्यों में समानता होने के कारण समूह | के सदस्यों के व्यवहारों में समानता दिखाई पड़ती हैं। जनेनिकी के अनुसार सामाजिक समूह व्यक्तियों का मात्र समूह नहीं होता बल्कि उनके विशिष्ट व्यवहारों का समन्वय होता है।
⦁ संगठन-समूह में जितने भी सदस्य होते हैं, उनके सामाजिक मूल्य, स्वार्थ तथा आदर्श एक ही | होते हैं। समूह के सदस्य संगठित ही रहते हैं, भले ही वे एक-दूसरे से दूर ही क्यों न रहें। सामाजिक समूह एक प्रभावशाली संगठन है। सामाजिक समूह की जो भी विशेषताएँ हैं, उन सबका समूह के सदस्यों के जीवन पर प्रभाव पड़ता है।
⦁ सदस्यों में सहयोग समूह के जितने भी सदस्य होते हैं, वे एक-दूसरे के सहयोग पर निर्भर है। यदि कोई व्यक्ति समूह के हितों को हानि पहुँचाती है तो समूह के सभी सदस्य मिलकर उसका सामना करते हैं।
⦁ अनुशासन तथा नियंत्रण-समूह के सदस्य नियंत्रित रहते हैं। प्रत्येक समूह ‘के कुछ रीति-रिवाज होते हैं और समूह के प्रत्येक सदस्य को उन रीति-रिवाजों का पालन करना पड़ता है। समूह के कानूनों या रीति-रिवाजों का पालन न करने पर समूह अपने सदस्य को दंड भी देता है।
⦁ मूर्त संगठन–समान उद्देश्यों या लक्ष्यों वाले व्यक्तियों का संकलन होने के नाते यह एक मूर्त संगठन है तथा इसलिए इसे देखा जा सकता है।
सामाजिक समूहों का वर्गीकरण
यद्यपि यह सत्य है कि विद्वानों ने सामाजिक समूहों का विभिन्न प्रकार से वर्गीकरण किया है, तथापि अभी तक कोई सर्वमान्य वर्गीकरण को प्रस्तुत नहीं कर सकता है। समूह का वर्गीकरण निम्न प्रकार से किया गया है-
( अ) समनर द्वारा वर्गीकरण
समनर ने समूहों को निम्नलिखित दो श्रेणियों में विभाजित किया है-
⦁ अंतः समूह-अंत:समूह (In-group) का तात्पर्य उस समूह से है, जिसके प्रति लोगों में हम की भावना पाई जाती है। इस भावना के साथ-साथ व्यक्तियों में यह विचार उत्पन्न होने लगता है कि यह मेरा समूह है और इसके समस्त सदस्य मेरे आत्मीय और हितैषी हैं। अंत:समूह के किसी एक सदस्य के सुखी या दुःखी होने पर समूह के सभी सदस्य कुछ हद तक सुखी या दु:खी हुआ करते हैं। अंत:समूह के सदस्यों में अपने समूह के प्रति पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण भी पाया जाता है। अपने समूह को उच्च या महान् माना जाता है तथा अन्य समूहों को निम्न या हीन माना जाता है। अंत:समूहों के सदस्यों में आमने-सामने का संबंध होता हैं। परिवार, मित्र-मंडली इत्यादि अंत:समूहों के प्रमुख उदाहरण है। एक स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे किसी अन्य स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के विरुद्ध एक अंत:समूह का निर्माण करते हैं। सामान्य रूप से अंत:समूहों के सदस्यों की संख्या बहुत अधिक नहीं होती।
⦁ बाह्य समूहबाह्य समूह (Out-group) अंत:समूह के विपरीत विशेषताओं वाले समूह हैं। व्यक्ति जहाँ अंत:समूह के प्रति प्रेम-भावना रखता है, वहीं बाह्य समूह के प्रति द्वेष और घृणा की भावना रखता है। बाह्य समूह के प्रति उदासीन तथा निषेधात्मक दृष्टिकोण होता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि हम जिस समूह के सदस्य नहीं होते तथा जिस समूह के प्रति हममें ‘हम की भावना नहीं पाई जाती, वह समूह हमारे लिए बाह्य समूह होता है। शत्रु सेना, अन्य गाँव आदि इसके उदाहरण हैं।
(ब) मैकाइवर तथा पेज द्वारा वर्गीकरण
मैकाइवर तथा पेज ने सामाजिक समूहों को निम्नलिखित तीन श्रेणियों में विभाजित किया है-
⦁ क्षेत्रीय समूह-यह समूह निश्चित भू-भाग में निवास करते हैं; जैसे—गाँव, नगर, राष्ट्र, जनजाति इत्यादि।
⦁ हितों के प्रति चेतन समूह जिनका निश्चित संगठन नहीं होता—ऐसे समूहों का कोई निश्चित संगठन तो नहीं होता, परंतु इनके सदस्य अपने समूह के प्रति सचेत होते हैं। शरणार्थी समूह, जाति व वर्ग इसके उदाहरण हैं।
⦁ हितों के प्रति चेतन समूह जिनका निश्चित संगठन होता है—ऐसे समूहों में समूह के प्रति चेतना के साथ-साथ निश्चित संगठन भी पाया जाता है। राष्ट्र, चर्च, श्रमिक संघ इत्यादि ऐसे समूहों के उदाहरण हैं।
(स) कूले द्वारा वर्गीकरण
कूले ने सामाजिक समूहों को निम्नलिखित दो श्रेणियों में विभक्त किया है-
⦁ प्राथमिक समूह-इन समूहों के सदस्यों में आमने-सामने का घनिष्ठ संबंध तथा सहयोग पाया जाता है। आकार सीमित होने के कारण सदस्यों में व्यक्तिगत एवं सहज संबंध पाए जाते हैं। परिवार, पड़ोस तथा क्रीड़ा समूह इत्यादि इसके प्रमुख उदाहरण हैं।
⦁ द्वितीयक समूह–इन समूहों में प्राथमिक समूहों के विपरीत लक्षण पाए जाते हैं; अर्थात् ये आकार में बड़े होते हैं तथा इसके सदस्यों में पारस्परिक सहयोग एवं घनिष्ठता का अभाव पाया जाता है। राष्ट्र, राजनीतिक दल, श्रमिक संघ इत्यादि ऐसे समूहों के उदाहरण हैं।
(द) मिलर द्वारा वर्गीकरण
मिलर ने सामाजिक समूहों को निम्नलिखित दो श्रेणियों में विभाजित किया है-
⦁ लम्बवत् समूह-ये समूह अनेक उपखंडों में विभाजित होते हैं तथा इन उपखंडों में ऊँच-नीच, ” संस्तरण एवं सामाजिक दूरी पाई जाती है। वर्ण तथा जाति इसके उदाहरण हैं।
⦁ समान्तर समूह-इन समूहों के सदस्यों को प्रस्थापित पर्याप्त सीमा तक एक समान होती है। श्रमिक वर्ग, छात्र वर्ग इत्यादि ऐसे समूहों के प्रमुख उदाहरण हैं। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि विभिन्न विद्वानों द्वारा सामाजिक समूहों को उनके उद्देश्यों, सदस्यों में पाए जाने वाले संबंधों की घनिष्ठता व संबंधों की प्रकृति के आधार पर अनेक श्रेणियों में विभाजित किया गया है।