भूमिका का अर्थ एवं परिभाषाएँ समाज में जितने भी व्यक्ति रहते हैं उन सबका समाज में कोई-न-कोई स्थान होता है। इस स्थान को उस व्यक्ति की प्रस्थिति कहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपनी प्रस्थिति का ध्यान रखकर समाज में अपना स्थान बनाने के लिए कुछ-न-कुछ कार्य अवश्य करता है। उसके इन कार्यों से ही उसका समाज में स्थान निर्धारित किया जाता है। कार्यों के आधार पर व्यक्ति को समाज प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। इस प्रकार, भूमिका प्रस्थिति का गत्यात्मक पक्ष है तथा प्रस्थिति के अनुसार व्यक्ति से जिस प्रकार के कार्य की आशा की जाती है उसी को उसकी भूमिका कहा जाता है। प्रमुख विद्वानों ने भूमिका की परिभाषा इस प्रकार दी है—
सार्जेण्ट (Sargent) के अनुसार-“व्यक्ति की भूमिका सामाजिक व्यवहार का एक प्रतिमान या प्रकार है जो उसे समूह की आवश्यकताओं और आशाओं में परिस्थति के अनुसार योग्य बनाता है।”
यंग (Young) के अनुसार-“व्यक्ति जो करता है या करवाता है उसे हम उसकी भूमिका कहते हैं।”
लिंटन (Linton) के अनुसार-“भूमिका से तात्पर्य सांस्कृतिक प्रतिमानों के उस योग से है जो किसी प्रस्थिति से संबंधित हो। इस प्रकार इसमें वे सब मनोवृत्तियाँ, मूल्य तथा व्यवहार सम्मिलित हैं जो समाज किसी प्रस्थिति को ग्रहण करने वाले व्यक्ति अथवा व्यक्तियों को प्रदान करता है।”
डेविस (Davis) के अनुसार-“अपनी प्रस्थिति की आवश्यकताओं को पूरा करने के वास्तविक तरीकों को ही भूमिका कहते हैं।”
ऑगबर्न तथा निमकॉफ (Ogbum and Nimkoff) के अनुसार-“भूमिका एक समूह में एक विशिष्ट पद से संबंधित सामाजिक प्रत्याशाओं एवं व्यवहार प्रतिमानों का एक योग है, जिसमें कर्तव्यों : एवं सुविधाओं दोनों का समावेश होता है।”
ब्रूम एवं सेल्जनिक (Broom and Selznick) के अनुसार–एक विशिष्ट सामाजिक पद से संबंधित व्यवहार और प्रतिमान को भूमिका के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।” उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यक्ति से उसकी प्रस्थिति के अनुसार जिस कार्य की आशा की जाती है, वही उसकी भूमिका है। अधिकांशतया व्यक्तियों से सामाजिक अपेक्षाओं के अनुसार ही भूमिकाओं के निष्पादन की आशा की जाती है।
प्रस्थिति एवं भूमिका का संबंध
एक व्यक्ति की प्रस्थिति व उसकी भूमिका में घनिष्ठ संबंध होता है। समाज में व्यक्ति अपनी प्रस्थिति के अनुसार ही भूमिका का निष्पादन करता है और उसकी भूमिका के आधार पर ही उसे सामाजिक प्रस्थिति प्राप्त होती है। प्रस्थिति और भूमिका का यह संबंध निम्न प्रकार से समझा जा सकता है–
⦁ अन्योन्याश्रितता–सामाजिक प्रस्थिति व भूमिका एक-दूसरे से पृथक् नहीं किए जा सकते हैं। प्रस्थिति के अनुसार व्यक्ति को भूमिका निभानी पड़ती है और भूमिका के अनुसार व्यक्ति की प्रस्थिति निर्धारित की जाती है अत: दोनों ही एक-दूसरे पर आश्रित हैं।
⦁ प्रस्थिति भूमिका की प्रेरक-एक व्यक्ति की प्रस्थिति उसे अपनी भूमिका निष्पादित करने की प्रेरणा देती है। यदि समाज में व्यक्ति की प्रस्थिति ऊँची है तो व्यक्ति से ऊँची भूमिका की आशा की जाती है, परंतु यह जरूरी नहीं है कि व्यक्ति की भूमिका उसकी प्रस्थिति के अनुकूल ही हो।
⦁ प्रस्थिति द्वारा भूमिकाओं का निर्धारण-सामाजिक प्रस्थिति व्यक्तियों की भूमिकाओं को निर्धारित करती है। यही दूसरी बात है कि किसी विशेष प्रस्थिति में नियुक्त व्यक्ति अपनी प्रस्थिति के अनुसार भूमिका निभाता है अथवा नहीं। परंतु जैसा भी वह कार्य करता है, वही उसकी भूमिका कहलाती है।
⦁ भूमिका द्वारा प्रस्थिति का निर्धारण—कई बार ऐसा भी होता है कि व्यक्ति द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका उसको समाज में निश्चित प्रस्थिति का निर्धारण करती है। यदि कोई व्यक्ति अच्छी भूमिका निभाता है तो उसको समाज अधिक सम्मान देता है और उसकी प्रस्थिति भी ऊँची होती है।
⦁ भूमिकाओं द्वारा श्रेणी का निर्धारण–-यदि भूमिका की श्रेणी निम्न स्तर की हो तो व्यक्ति की प्रस्थिति की श्रेणी भी निम्न स्तर की होगी। उदाहरणार्थ-परंपरागत रूप से व्यक्ति के कार्य को ही वर्ण एवं जाति प्रथा का प्रमुख आधार माना जाता रहा है।
सामाजिक प्रस्थिति एवं भूमिका का महत्त्व
सामाजिक प्रस्थिति व भूमिका का सामाजिक स्तरीकरण में अधिक महत्त्व है। इस संबंध में यह कहा जा सकता है कि किसी व्यक्ति का पद समाज में उसकी वह प्रस्थिति है जिसे वह जन्म, आयु, लिंग, पेशे आदि के कारण प्राप्त करता है और इस प्रस्थिति के अनुसार वह जो कार्य करता है वहीं उसकी भूमिका कहलाती है। इस प्रकार प्रस्थिति तथा भूमिका ही सामाजिक संगठन की आधारशिलाएँ हैं। यदि किसी समाज में प्रस्थिति तथा भूमिका में किसी भी प्रकार की अनिश्चितता आ जाती है तो समाज में विघटन की प्रक्रिया शुरू हो जाती है तथा ऐसी परिस्थिति को आदर्शविहीनता अथवा प्रतिमानता (Anomie) कहा जाता है। प्रस्थिति व भूमिका के महत्त्व को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है-
⦁ प्रस्थिति एवं भूमिका व्यक्ति को ठीक कार्य करने के लिए प्रेरित करते हैं। अतएव स्थिति व कार्य सामाजिक संगठन व व्यवहार को निर्धारित करते हैं।
⦁ प्रस्थिति एवं भूमिका के कारण सामाजिक श्रम-विभाजन सरल होता है।
⦁ प्रस्थिति एवं भूमिका के बंधन में पड़कर व्यक्ति समाज विरोधी कार्य नहीं कर पाता अतएव स्थिति व कार्य सामाजिक नियंत्रण में सहायक हैं।
⦁ प्रस्थिति एवं भूमिका व्यक्ति में उत्तरदायित्व की भावना को जाग्रत करते हैं।
⦁ सामाजिक प्रगति के कार्यों में व्यक्ति को प्रेरणा देने में प्रस्थिति एवं भूमिका का विशेष महत्त्व है।
निष्कर्ष–उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रस्थिति एवं भूमिका दो परस्पर संबंधित संकल्पनाएँ हैं। प्रस्थिति का अर्थ समाज द्वारा व्यक्ति को दिया गया स्थान या पद है, जबकि भूमिका को अर्थ प्रस्थिति के अनुरूप उसका कार्य है। भूमिका प्रस्थिति का गत्यात्मक पक्ष है।