सामाजिक प्रस्थिति एवं सामाजिक भूमिका समाजशास्त्र की दो ऐसी मूलभूत संकल्पनाएँ हैं जो सामाजिक स्तरीकरण के संदर्भ में महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। प्रत्येक समाज अपने सदस्यों को एक निश्चित पद प्रदान करता है जो कि उनकी प्रस्थिति कही जाती है। उस प्रस्थिति के अनुरूप उससे जिस कार्य की आशा की जाती है उसे भूमिका कही जाता है। इस प्रकार, प्रस्थिति और भूमिका की संकल्पनाएँ परस्पर जुड़ी हुई हैं। भूमिका को प्रस्थिति का गत्यात्मक पक्ष कहा गया है क्योकि स्थिति परिवर्तित होते ही कार्य भी परिवर्तित हो जाता है। प्रस्थिति को संस्थागत भूमिका भी कहते हैं।
प्रस्थिति का अर्थ एवं परिभाषाएँ
समाज में व्यक्ति का उसके समूह में जो स्थान होता है उसे व्यक्ति की प्रस्थिति कहते हैं। किसी कार्यालय में अधिकारी का ऊँचा स्थान होता है तो उस कार्यालय में उस अधिकारी की प्रस्थिति ऊँची मानी जाती है क्योंकि वह कार्यालय में महत्त्वपूर्ण कार्य करता है। इसलिए प्रस्थिति का अर्थ उस महत्त्वपूर्ण स्थान से जो व्यक्ति अपने समूह या कार्यालय में या अन्य सार्वजनिक उत्सवों में अपनी योग्यता व कार्यों के द्वारा अथवा जन्म से प्राप्त कुछ लक्षणों द्वारा प्राप्त करता है। प्रस्थिति को विभिन्न विद्वानों ने निम्न प्रकार से परिभाषित किया है-
बीरस्टीड के अनुसार-“सामान्यतः एक प्रस्थिति समाज अथवा एक समूह में एक पद है।”
मैकाइवर एवं पेज (Maclver and Page) के अनुसार--(प्रस्थिति वह सामाजिक स्थान है जो इसे ग्रहण करने वाले के लिए उसके व्यक्तिगत गुणों तथा सामाजिक सेवाओं के अलावा उसके सम्मान, प्रतिष्ठा और प्रभाव की मात्रा निश्चित करता है।
इलियट एवं मैरिल (Elliott and Merrill) के अनुसार-“एक व्यक्ति की प्रस्थिति से हमारा आशय उसके स्थान तथा अन्य व्यक्तियों के संदर्भ में उसके क्रम से है, जो उसे समूह से मिला हुआ है।”
लेपियर (LaPiere) के अनुसार-“सामाजिक प्रस्थिति साधारणत: व्यक्ति की समाज में स्थिति से समझी जाती है।”
लिण्टन (Linton) के अनुसार-“विशेष व्यवस्था में स्थान, जिसे व्यक्ति किसी दिए हुए समय में प्राप्त करता है, उस व्यवस्था के अनुसार उसकी प्रस्थिति की ओर संकेत करता है।”
यंग (Yong) के अनुसार-“प्रत्येक समाज और प्रत्येक समूह में प्रत्येक सदस्य के कुछ कार्य क्रियाएँ हैं जिनसे वह संबद्ध है और जो शक्ति या प्रतिष्ठा की कुछ मात्रा अपने साथ ले चलती हैं। इस प्रतिष्ठा या शक्ति से हम उसकी प्रस्थिति का संकेत करते हैं।’
उपर्युक्त परिभाषाओं से यह पूर्णतया स्पष्ट हो जाता है एक व्यक्ति की प्रस्थिति से हमारा अभिप्राय उसके स्थान अथवा पद से है जो समाज द्वारा मिला हुआ है। प्रस्थिति एवं प्रतिष्ठा अंत:संबंधित शब्द है। क्योंकि प्रत्येक प्रस्थिति के अपने कुछ अधिकार एवं मूल्य होते हैं। उदाहरणार्थ-एक दुकानदार की तुलना में एक डॉक्टर की प्रतिष्ठा ज्यादा होती है चाहे उसकी आय कम ही क्यों न हो।
सामाजिक प्रस्थिति के प्रकार या स्वरूप
प्रस्थिति कई प्रकार की होती है। इसे दो वर्गीकरणों के आधार पर समझाने का प्रयास किया गया है। प्रथम वर्गीकरण में प्रस्थिति को निर्धारित करने वाले आधार को सामने रखा जाता है, जबकि दूसरे वर्गीकरण में व्यक्ति की प्रस्थिति को प्रदान करने वाले अन्य व्यक्तियों की संख्या को सामने रखा जाता है। प्रथम वर्गीकरण के अनुसार सामाजिक प्रस्थिति की निम्नलिखित दो श्रेणियाँ हैं-
⦁ प्रदत्त प्रस्थिति–यह प्रस्थिति व्यक्ति को जन्म से ही प्रदान की जाती है। जिस जाति में कोई व्यक्ति जन्म लेता है उसी जाति की समाज में मान्यता के अनुसार उस व्यक्ति का पद निर्धारित होता है। इस प्रकार का पद- समाज द्वारा जन्म से ही प्रदान किया जाता है। इस प्रदत्त या अवलोकित प्रस्थिति का आधार आयु, लिंग अथवा परिवार है। इस प्रकार की प्रस्थिति प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को किसी प्रकार का प्रयास नहीं करना पड़ता है। यह प्रस्थिति समाज या समूह द्वारा व्यक्ति को जन्म से ही उसकी जाति, उसकी आयु, उसके लिंग और उसके पद के अनुसार प्रदान की जाती है।
⦁ अर्जित प्रस्थिति–व्यक्ति अपनी योग्यता, परिश्रम एवं कार्यकुशलता से समाज में अपना स्थान ग्रहण कर लेता है। इस प्रकार स्थान प्राप्ति में व्यक्ति को अपने कार्य-कौशल पर ही निर्भर रहना पड़ता है। इस स्थिति की प्राप्ति व्यक्ति अपने परिश्रम से करता है, इसलिए इसे उपार्जित प्रस्थिति कहा जाता है। इस प्रकार की प्रस्थिति को प्राप्त करने या बनाए रखने में व्यक्ति को कठोर परिश्रम करना पड़ता है। उसे समाज के हितों का ध्यान रखना पड़ता है और वह कोई ऐसा कार्य नहीं करता जिससे उसकी प्रस्थिति पर या समाज में उसके द्वारा प्राप्त स्थान पर बुरा प्रभाव पड़े। इस प्रकार की प्रस्थिति का आधार व्यक्ति की अपनी योग्यता अथवा व्यक्तिगत गुण है।
समाजशास्त्रियों ने प्रस्थिति के स्वरूपों का एक अन्य वर्गीकरण भी प्रस्तुत किया है। इस वर्गीकरण का आधार प्रस्थिति प्रदान करने वाले व्यक्तियों की संख्या है। इस आधार पर प्रस्थितियाँ दो प्रकार की हैं-
⦁ सामान्य प्रस्थिति–जब किसी व्यक्ति के पद या स्थान या उसकी प्रस्थिति को व्यक्ति सामान्य रूप से स्वीकार करते हैं, तो उसे सामान्य प्रस्थिति कहते हैं। सभा में बैठकर प्रोफेसर, अध्यापक, वकील आदि का पद सामान्य स्थिति के अंतर्गत शामिल किया जाता
⦁ विशिष्ट प्रस्थिति–जब किसी व्यक्ति के पद या स्थान को स्वीकार करने वाले व्यक्तियों की संख्या अपेक्षाकृत कम हो तो उसे विशिष्ट प्रस्थिति का नाम दिया जाता है। माता-पिता का पद इस प्रकार की विशिष्ट स्थिति के अंतर्गत गिना जाता है।
प्रदत्त तथा अर्जित प्रस्थिति में अंतर
प्रदत्त प्रस्थिति व्यक्ति को बिना किसी प्रयास के जन्म से ही मिल जाती है। अर्जित प्रस्थिति व्यक्ति को अपने गुणों व योग्यता के अनुसार मिलती है तथा इसे प्राप्त करने हेतु व्यक्ति को प्रयास करना पड़ता है। दोनों में निम्नलिखित प्रमुख अंतर पाए जाते हैं–
⦁ प्रदत्त प्रस्थिति समाज की परंपराओं द्वारा प्राप्त होती है, जबकि अर्जित प्रस्थिति व्यक्ति के प्रयास द्वारा प्राप्त होती है।
⦁ प्रदत्त प्रस्थिति व्यक्ति को स्वत: प्राप्त हो जाती है, किन्तु अर्जित प्रस्थिति के लिए व्यक्ति को प्रयास करना पड़ता है।
⦁ प्रदत्त प्रस्थिति के बदलने पर व्यक्ति के सामाजिक जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, जबकि अर्जित प्रस्थिति के गिरने से व्यक्ति का समाज में अपमान हो सकता है।
⦁ प्रदत्त प्रस्थिति जाति या जन्म के आधार पर मिलती है जिसको बदला नहीं जा सकता है, किंतु अर्जित प्रस्थिति परिवर्तनशील हैं। एक व्यक्ति प्रयास करके कुछ-का-कुछ बन सकता है।
⦁ प्रदत्त प्रस्थिति परंपराओं पर आधारित होने के कारण अनिश्चित होती हैं, परंतु अर्जित प्रस्थिति पूर्ण रूप से निश्चित होती है।
⦁ प्रदत्त प्रस्थिति आयु, लिंग या जाति के आधार पर निर्धारित होती है, जबकि अर्जित प्रस्थिति का आधार शिक्षा व संपत्ति है।