भारतीय समाज में सामाजिक स्तरीकरण की एक अनुपम व्यवस्था पाई जाती है जिसे जाति प्रथा कहते हैं। जाति की सदस्यता व्यक्ति को जन्म से ही मिल जाती है तथा वह संपूर्ण जीवन उसी का सदस्य बना रहता है अर्थात् जाति की सदस्यता को किसी भी कार्य से बदला नहीं जा सकता। इसलिए इसे सामाजिक स्तरीकरण की बंद व्यवस्था भी कहा जाता है। जातियों की सामाजिक स्थिति में काफी अंतर पाया जाता है अर्थात् इसमें संस्तरण पाया जाता है। जाति का अर्थ एवं परिभाषाएँ समाज में व्यक्ति की स्थिति उसके जन्म लेने के स्थान व समूह से निर्धारित होती है। जाति भी व्यक्तियों का एक समूह है। जाति कुछ विशिष्ट सांस्कृतिक प्रतिमानों को मानने वाला वह समूह है जिसके सदस्यों में रक्त शुद्धि होने का विश्वास किया जाता है, जिसकी सदस्यता व्यक्ति जन्म से ही प्राप्त कर लेता है। और जन्म भर उस सदस्यता का त्याग नहीं करता है। इस प्रकार का समूह सामान्य संस्कृति का अनुसरण करता है। इस समूह के सदस्य अन्य किसी समूह के सदस्य नहीं होते हैं और न कोई बाहर के समूह के सदस्य इस समूह के सदस्य हो सकते हैं, इस प्रकार जाति एक बंद वर्ग है।
विद्वानों ने जाति की परिभाषा भिन्न-भिन्न आधारों पर की है। प्रमुख विद्वानों द्वारा प्रस्तुत परिभाषाएँ इस प्रकार हैं-
चार्ल्स कूले (Charles Cooley) के अनुसार-“जब एक वर्ग आनुवंशिक होता है तो हम उसे जाति कहते हैं।”
मजूमदार (Majumdar) के अनुसार-“जाति एक बंद वर्ग है।”
हॉबल (Hoebel) के अनुसार-“अन्तर्विवाह तथा आनुवंशिकता द्वारा थोपे गए पदों को जमा देना ही जाति व्यवस्था है।”
मैकाइवर एवं पेज (Maclver and Page) के अनुसार-“जब सामाजिक पद पूर्णत: निश्चित हो, जो जन्म से ही मनुष्य के भाग्य को निश्चित कर दे, जीवनपर्यंत उसके परिवर्तन की कोई आशा न हो, तब वह जन वर्ग, जाति का रूप धारण कर लेते हैं।”
केतकर (Ketkar) के अनुसार-“जाति की सदस्यता उन्हीं व्यक्तियों तक सीमित होती है जो उसी जाति में जन्म लेते हैं तथा एक कठोर सामाजिक नियम अपनी जाति के बाहर विवाह करने से रोकता है।”
दत्त (Dutta) के अनुसार-“एक जाति के सदस्य जाति के बाहर विवाह नहीं कर सकते हैं। अनेक जातियों में कुछ निश्चित व्यवसाय हैं। मनुष्य की जाति का निर्णय जन्म से होता है।” उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि जाति व्यक्तियों का एक अंतर्विवाही समूह है जिसका सामान्य नाम है, एक परंपरागत व्यवसाय है, जिसके सदस्य एक ही स्रोत से अपनी उत्पत्ति का दावा करते हैं तथा काफी सीमा तक सजातीयता का प्रदर्शन करते हैं।
जाति की प्रमुख विशेषताएँ
जाति सामाजिक स्तरीकरण की एक अनुपम व्यवस्था है जिसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
⦁ जन्म पर आधारित सदस्यता-जाति की सर्वप्रथम प्रमुख विशेषता यह है कि इसकी सदस्यता के लिए व्यक्ति को किसी भी प्रकार का प्रार्थना-पत्र नहीं देना पड़ता है बल्कि व्यक्ति स्वत: ही जन्म से उसका सदस्य बन जाता है अर्थात् व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है, उसी का सदस्य बन जाता है।
⦁ पेशों की निश्चितता–प्रत्येक जाति के पेशे व व्यवसाय पूर्व निश्चित होते हैं। वास्तव में, जाति का शाब्दिक अर्थ ही निश्चित व्यवसाय को धारण करने से लगाया गया है। प्रत्येक जाति का अपना एक निश्चित व्यवसाय होता है तथा इसकी के कारण विभिन्न जातियों में पारस्परिक निर्भरता पाई जाती रही है।
⦁ खान-पान पर प्रतिबंध-जाति व्यवस्था में खान-पान के प्रतिबंध होते हैं। उच्च जाति के सदस्य निम्न जाति के सदस्यों द्वारा पकाया हुआ या छुआ हुआ भोजन नहीं करते हैं। भारत में ब्राह्मण, शूद्रों के साथ खान-पान के संबंध नहीं रखते थे।
⦁ ऊँच-नीच की भावना–जाति व्यवस्था के अंतर्गत एक जाति दूसरी जातियों से ऊँची-नीची होती है। इसे ऊँच-नीच के कारण एक जाति के सदस्य दूसरी जाति के सदस्यों को छूना भी पसंद नहीं करते हैं। भारतीय समाज में अस्पृश्यता की भावना अधिक पाई जाती रही है।
⦁ समान संस्कृति की मान्यता–जाति के सदस्यों में समान संस्कृति पाई जाती है। जाति के सभी सदस्यों में समान प्रथाएँ, परंपराएँ तथा रूढ़ियाँ पाई जाती हैं। एक जाति के सभी रीति-रिवाज एक जैसे होते हैं। इसीलिए जाति के सदस्यों में एकता व समानता पाई जाती है।
⦁ अनिवार्य सदस्यता-जाति की सदस्यता व्यक्ति की इच्छा पर आधारित नहीं है। जन्म से ही व्यक्ति किसी-न-किसी जाति का सदस्य होता है। इस सदस्यता को वह जीवन भर बदल नहीं सकता है। इसलिए जाति की सदस्यता अनिवार्य तथा स्थायी होती है।
⦁ निश्चित परंपराएँ-प्रत्येक जाति के अपने रीति-रिवाज तथा उसकी अपनी परंपराएँ होती हैं। जाति के सदस्य सरकारी कानूनों से भी अधिक जातीय परंपराओं की ओर झुके होते हैं। वे सरकारी कानून का उल्लंघन कर सकते हैं तथा सरकार का विरोध कर सकते हैं, किंतु जातिगत परंपराओं का उल्लंघन करने का दुस्साहस नहीं कर सकते।
⦁ अंतर्विवाहों समूह-जाति के सदस्यों में विवाह संबंधी प्रतिबंध होते हैं। जाति के सदस्यों को। अपनी जाति के अंदर विवाह करने पड़ते हैं। जाति के लड़कों और लड़कियों का विवाह जाति में ही होता है और वे जाति से बाहर के सदस्यों से वैवाहिक संबंध स्थापित नहीं कर सकते। इसलिए कहा जाता है कि जाति एक अंतर्विवाही समूह है।।
⦁ सदस्यों की निश्चित स्थिति-जाति के सदस्यों को समाज में एक निश्चित पद या उसकी स्थिति होती है। समाज में जाति का जो सम्मान होगा, उसी के अनुरूप जाति के सदस्यों की स्थिति होगी। उदाहरण के लिए–परंपरा से ब्राह्मणों की स्थिति उच्च तथा शूद्र की स्थिति निम्न रही है।
⦁ सदस्यों के निश्चित कार्य-समाज में प्रत्येक जाति के सदस्य अपनी स्थिति के अनुसार कार्य भी करते हैं। उच्च वर्ग या जाति के सदस्य कोई ऐसा कार्य नहीं करते हैं जिनसे उनकी सामाजिक स्थिति में गिरावट आ जाए। इसी प्रकार निम्न जाति के सदस्य कोई उच्च कार्य नहीं कर सकते किंतु आधुनिक युग में ऐसा हो रहा है।
⦁ सामाजिक संबंधों का अभाव–एक जाति के सदस्य केवल अपनी जाति में खान-पान, विवाह आदि के संबंध स्थापित करते हैं। फलस्वरूप अंतर्जातीय संबंधों की स्थापना नहीं की जा सकती है। अतएव विभिन्न जातियों के बीच सामाजिक संबंधों का अभाव पाया जाता है, परंतु अब यह विशेषता समाप्त हो गई है।
निष्कर्ष-उपर्युक्त विवेचन से यह पूर्णतः स्पष्ट हो जाता है कि जाति एक अंतर्विवाही समूह है। जिसकी सदस्यता जन्म से ही प्राप्त होती है और यह किसी भी प्रकार से बदली नहीं जा सकती है। भारतीय समाज जाति के आधार पर ही अनेक खंडों में विभाजित है।