मानव के जन्म के साथ ही उसे अनेक आवश्यकताएँ घेर लेती हैं। इनमें से कुछ आवश्यकताएँ उसकी प्राथमिक आवश्यकताएँ हैं; जैसे कि भोजन, वस्त्र तथा निवास की; और इन्हीं आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समाज में आर्थिक संस्थाओं का जन्म होता है। मनुष्य की आर्थिक क्रियाएँ उत्पादन, विनिमय, वितरण से संबंधित होती है। आर्थिक संस्थाओं का प्रत्यक्ष संबंध मानवीय आवश्यकताओं से होता है। आर्थिक संस्थाएँ मनुष्य के जीवन को व्यवस्थित करती हैं। यदि मानवीय आवश्यकताएँ; विशेषकर भौतिक आवश्यकताएँ बिना नियमों के संघर्ष से प्राप्त होने की स्थिति में आ जाएँ तो सामाजिक संरचना ही नष्ट हो जाएगी। अर्थशास्त्रियों को मत है कि आर्थिक संस्थाओं को समाज में केंद्रीय स्थिति प्राप्त है। यहाँ पर आर्थिक संस्था व आर्थिक व्यवस्था के संदर्भ में यह बताना आवश्यक है कि ‘आर्थिक व्यवस्था’ एक विस्तृत धारणा है, जबकि ‘आर्थिक संस्था’ सीमित धारणा है।
आर्थिक संस्थाओं का संबंध समाज की अनुकूलन संबंधी समस्या से होता है। इनमें उने संस्थाओं को सम्मिलित किया जाता है। जो समाज में वस्तुओं के उत्पादन एवं वितरण से संबंधित होती है। आर्थिक संस्थाओं द्वारा ही जीवन निर्वाह से सबंधित आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। प्रमुख विद्वानों ने आर्थिक संस्था की परिभाषाएँ निम्नांकित प्रकार से दी हैं-
⦁ एण्डरसन एवं पार्कर (Aderson and Parker) के अनुसार-“वस्तुओं के उत्पादन तथा वितरण के माध्यम से आर्थिक संस्थाएँ समाज के अस्तित्व को बनाए रखती हैं। यह कार्य पूँजी, श्रम, भूमि, कच्चे माल तथा व्यवस्था संबंधी योग्यता के अधिकतम उपयोग द्वारा सम्भव होता है।
⦁ डेविस (Davis) के अनुसार-समाज चाहे सभ्य हो या असभ्य, सीमित वस्तुओं के वितरण को नियंत्रित करने वाले आधारभूत विचारों, आदर्श नियमों तथा पदों को आर्थिक संस्था की संज्ञा दी जाएगी।