मानव समाज में विवाह एक प्राचीन तथा महत्त्वपूर्ण संस्था है जो कि सार्वभौमिक है; अर्थात् सभी समाजों में किसी-न-किसी रूप में पाई जाती है। हिंदू समाज में तो इसे विशेष महत्त्व प्रदान किया गया है। आश्रम व्यवस्था में गृहस्थ आश्रम में विवाह द्वारा प्रवेश करना एक अनिवार्य कर्म ठहराया गया है। प्रायः विवाह का मुख्य उद्देश्य स्त्री तथा पुरुष के यौन-संबंधों को नियंत्रित तथा नियमित करना माना जाता है। परंतु हिंदू धर्म के अनुसार, विवाह के एक नहीं वरन् अनेक उद्देश्य है, जिनमें धर्म तथा प्रजा (संतान) अनिवार्य हैं और यौन-संबंधों की संतुष्टि अंतिम उद्देश्य है।
विवाह का अर्थ एवं परिभाषाएँ
विवाह समाज द्वारा मान्यता प्राप्त एक सामाजिक संस्था है, जिसमें स्त्री-पुरुष को काम-वासना की संतुष्टि के लिए समाज द्वारा स्वीकृत प्रदान की जाती है। समाज की यह स्वीकृति कुछ संस्कारों को पूरा करने के पश्चात् ही प्राप्त होती है। इस अर्थ में विवाह यौन-संबंधों के नियंत्रण एवं नियमन का साधन है। अन्य शब्दों में, समाज द्वारा अनुमोदित स्त्री-पुरुष के संयोग को विवाह कहते हैं। विभिन्न समाजाशास्त्रियों ने इसे निम्न प्रकार परिभाषित किया है-
⦁ जेम्स (James) के अनुसार-“विवाह मानव समाज में सार्वभौमिक रूप से पाई जाने वाली संस्था है जो कि यौन-संबंध, गृह-संबंध, प्रेम तथा मानवीय स्तर पर व्यक्तित्व के जैविकीय, मनोवैज्ञानिक सामाजिक, नैतिक व आध्यात्मिक विकास की आवश्यकताओं को पूरा करती है।”
⦁ जेकब्स एवं स्टर्न (Jacobs and Stern) के अनुसार–“विवाह एक अथवा अनेक पति तथा पत्नियों के सामाजिक संबंध का नाम है। विवाह उस संस्कार का भी नाम है, जिसके द्वारा पति-पत्नी आपस में सामाजिक संबंधों में बँधे होते हैं।”
⦁ वेस्टरमार्क (Westermarck) के अनुसार-“विवाह एक या अधिक पुरुषों का एक अथवा अधिक स्त्रियों के साथ होने वाला वह संबंध है, जो प्रथा व कानून द्वारा स्वीकृत होता है और जिसमें संगठन में आने वाले दोनों पक्षों तथा उनसे उत्पन्न बच्चों के अधिकारों व कर्तव्यों का समावेश होता है।”
⦁ बोगार्डस (Bogardus) के अनुसार-“विवाह स्त्रियों और पुरुषों को पारिवारिक जीवन में प्रवेश कराने वाली संस्था है।”
⦁ मैलिनोव्स्की (Malinowski) के अनुसार–‘विवाह केवल यौन-संबंधों को अपनाना नहीं है, अपितु यह सामाजिक संस्था है, जो मिश्रित सामाजिक परिस्थितियों पर आश्रित है।”
⦁ गिलिन एवं गिलिन (Gillin and Gillin)के अनुसार-“विवाह एक प्रजननमूलक परिवार की स्थापना का समाज-स्वीकृत तरीका है।”
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि विवाह एक सामाजिक संस्था है, जिसके अंतर्गत स्त्री-पुरुष समाज द्वारा मान्यता प्राप्त ढंग से आपस में पति-पत्नी के रूप में यौन-संबंध स्थापित करके स जान को जन्म देते हैं तथा उनका समुचित पालन-पोषण करते हैं।
विवाह के प्रमुख उद्देश्य
विवाह के कुछ सर्वमान्य उद्देश्य हैं जो कि इस संस्था द्वारा समाज में पूरे किए जाते हैं। विवाह के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
⦁ यौन-सुख की प्राप्ति-प्रायः विवाह का उद्देश्य यौन-सुख प्राप्त करना माना जाता है। विवाह व्यक्ति को समाज द्वारा स्वीकृत तरीके से अपनी यौन-इच्छा की तृप्ति करने का अवसर प्रदान करता है। विवाह संस्था के अंतर्गत स्थापित हुए यौन-संबंधों को ही समाज द्वारा मान्यता प्रदान की जाती है।
⦁ संतानोत्पत्ति तथा बच्चों को सामाजिक स्थिति प्रदान करना—विवाह का दूसरा उद्देश्य संतान उत्पन्न करना है; क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अपने वंश की निरंतरता को बनाए रखना चाहता है। विवाह द्वारा उत्पन्न संतान ही उसके वंश को चलाती है। विवाह के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुई संतान को सामाजिक एवं वैधानिक मान्यता प्राप्त होती है।
⦁ परिवार का निर्माण करना—विवाह केवल यौन-इच्छा की संतुष्टि का साधन-मात्र ही नहीं है, अपितु इससे स्त्री और पुरुष पत्नी एवं पति के रूप में परिवार का निर्माण करते हैं। वास्तव में विवाह का सर्वप्रथम उद्देश्य परिवार का निर्माण करना ही है।।
⦁ मनोवैज्ञानिक उद्देश्य–विवाह का उद्देश्य स्त्री-पुरुष को मानसिक संतोष प्रदान करना भी है। मानसिक संतोष के कारण ही परिवार का सदस्य बड़े-से-बड़ा दु:ख सहन करने को तैयार रहते हैं।
⦁ आर्थिक तथा सामाजिक उद्देश्य–कुछ विद्वानों के अनुसार विवाह का उद्देश्य आर्थिक तथा सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना भी है। स्त्री-पुरुष विवाह द्वारा गृहस्थी का निर्माण करते हैं तथा गृहस्थी चलाने हेतु आर्थिक व सामाजिक दृष्टि से भी परस्पर सहयोग देते हैं। यह उद्देश्य अन्य उद्देश्यों की अपेक्षा कम महत्त्वपूर्ण है।
⦁ संबंधों में स्थायित्व-विवाह का एक अन्य उद्देश्य स्त्री-पुरुष संबंधों में स्थायित्व लाना है। क्योंकि विवाह संस्था समाज द्वारा स्वीकृत होती है, इसलिए यह समाज में स्थायी संबंधों की स्थापना और उन्हें स्थायित्व प्रदान करने में सहायक है।
विवाह के प्रमुख स्वरूप या प्रकार
विवाह एक अत्यंत प्राचीन संस्था है। मानव समाज में इसके अनेक रूप मिलते हैं जिनमें से प्रमुख निम्न प्रकार हैं-
1. एकविवाह-एकविवाह से तात्पर्य उस विवाह से है, जिसमें एक पुरुष केवल एक ही स्त्री से विवाह करें तथा इसी प्रकार एक स्त्री केवल एक ही पुरुष से विवाह करे। इस विवाह को आदर्श विवाह माना गया है; क्योंकि इसमें एक व्यक्ति की एक ही पत्नी हो सकती है, जिस पर उसका यौन-संबंधों के बारे में पूर्ण अधिकार होता है। केवल पत्नी की मुत्यु के पश्चात् पति तथा पति की मृत्यु के पश्चात् पत्नी को दूसरा विवाह करने का अधिकार होता है। तलाक के पश्चात् भी दूसरा विवाह किया जा सकता है। सभी सभ्य समाजों में एकविवाह प्रथा का ही प्रचलन है। वेस्टरमार्क तथा मैलिनोव्स्की जैसे विद्वानों ने एकविवाह को ही विवाह का सच्चा व आदि स्वरूप माना है।
2.बहुविवाह-बहुविवाह वह विवाह है, जिसमें कई पुरुष एक स्त्री से या कई स्त्रियाँ एक पुरुष से विवाह करती हैं। यदि जीवनसाथी की संख्या एक से अधिक है तो उसे बहुविवाह कहा जाता है। बहुविवाह के निम्नलिखित दो रूप होते हैं|
⦁ बहुपत्नी विवाह-इस विवाह में एक पुरुष एक ही समय में एक से अधिक स्त्रियों से विवाह करता है। बहुपत्नी प्रथा का प्रचलन मुख्यतया धनी वर्ग, मुसलमानों तथा कुछ जनजातियों में पाया जाता है, परंतु अब इस प्रकार के विवाह का प्रचलन कम होता जा रहा है। इस प्रकार के विवाह के अनेक कारण है; जैसे—प्रथम पत्नी से संतान का न होना, किसी समाज में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों की संख्या अधिक होना, स्त्रियों की स्थिति निम्न होना, सामाजिक मान्यताओं द्वारा स्वीकृत तथा कुछ लोग सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए भी अनेक पत्नियाँ रखते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ पुरुषों का अधिक कामुक प्रवृत्ति का होना भी बहुपत्नी विवाह का एक कारण है।
⦁ बहुपति विवाह-इसमें एक स्त्री एक समय में एक से अधिक पुरुषों से विवाह करती है। बहुपति प्रथा का प्रचलन सभ्य समाज में नहीं है। कुछ जनजातियों (जैसे खस इत्यादि) में इस तरह का विवाह पाया जाता है। इस प्रकार के विवाह के कारण भी अनेक होते हैं; जैसे—प्रथम, जब किसी समाज में स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों की संख्या
अधिक होती है। दूसरे, कहीं-कहीं आर्थिक कारणों तथा निर्धनता के कारण प्रत्येक व्यक्ति के लिए पृथक् रूप से परिवार बसाना संभव नहीं होता, इसलिए अनेक पुरुष मिलकर एक परिवार बसाते हैं जैसा कि लद्दाख में होता है। तीसरे, जब वधू-मूल्य अधिक होता है, तब भी इस प्रकार के विवाह किए जाते हैं। बहुपति विवाह भी दो प्रकार के हो सकते हैं—प्रथम प्रकार हैं भ्रातृक बहुपति विवाह तथा द्वितीय है अभ्रातृक बहुपति बिवाह। प्रथम प्रकार के विवाह में एक स्त्री के सभी पति आपस में भाई होते हैं।
तथा द्वितीय प्रकार में ये पति कोई अन्य भी हो सकते हैं।
3. समूह विवाह-उविकासवादियों के अनुसार प्रारंभिक अवस्था में समूह विवाहों का प्रचलन था जैसा कि इस विवाह के नाम से ही स्पष्ट है; इसमें पुरुषों का एक समूह स्त्रियों के एक समूह से विवाह कर लेता है। यह विवाह समूह के किसी पुरुष विशेष एवं स्त्री विशेष में न होकर दो संपूर्ण समूहों के स्तर पर होता है। इसमें प्रत्येक पुरुष, प्रत्येक स्त्री से यौन-संबंध स्थापित करने के लिए स्वतंत्र होता है। समूह विवाह जनजातियों में पाया जाता था तथा यह विवाह के प्रारंभिक रूप का द्योतक माना गया है। ली तथा ली (Lee and Lee) के अनुसार समूह विवाह से तात्पर्य उस विवाह से हैं, जिसमें एक ही समय में दो या दो से अधिक पुरुष दो तथा दो से अधिक स्त्रियाँ परस्पर विवाह करते हैं। वेस्टरमार्क के अनुसार तिब्बत, भारत व लंका में यह विवाह पाया जाता था। विवाह के इस प्रकार का उल्लेख ऑस्ट्रेलिया की जनजातियों में भी मिलता है, जहाँ एक कुल की सभी लड़कियाँ दूसरे कुल की भावी पत्नियाँ समझी जाती हैं।
कुछ विद्वानों ने समूह विवाह को साम्यवाद एवं समानतावाद का द्योतक माना है, परंतु इस प्रकार के विवाह वस्तुतः विवाह के वास्तविक अर्थ से ही मेल नहीं खाते हैं। इसके परिणामस्वरूप समूहों में अस्थायित्व एवं संघर्ष की भावना विकसित होती है। यद्यपि उविकासवादी इसकी कल्पना विवाह एवं परिवार के प्रारंभिक रूप में करते हैं, तथापि आजकल इस प्रकार के विवाह अशोभनीय माने जाते हैं। शायद इसलिए विश्व में अब इस प्रकार के विवाह नहीं पाए जाते हैं।