आज समाजशास्त्र में समग्र समाज को एक व्यवस्था के रूप में देखा जाता है। व्यवस्था से अभिप्राय विभिन्न इकाइयों के बीच अंतर्संबंध से बना वह क्रमबद्ध ताना-बाना है जिसमें किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वे इकाइयाँ एक-दूसरे से इस प्रकार संबंध होती हैं कि एक भाग में परिवर्तन दूसरे भाग को प्रभावित करता है। प्रत्येक सामाजिक व्यवस्था के दो पहलू होते हैं—संरचनात्मक एवं प्रकार्यात्मक। इन्हें समाज की संरचनात्मक उप-व्यवस्थाएँ तथा प्रकार्यात्मक उप-व्यवस्थाएँ भी कहते हैं। ये दोनों प्रकार की व्यवस्थाएँ समाज की प्रकार्यात्मक समस्याओं से संबंधित हैं अथवा इन्हें समाज की पूर्वपेक्षाओं से संबंधित माना जाता है।
समाज की चार प्रकार्यात्मक समस्याएँ या पूर्वापेक्षाएँ हैं: अनुकूलन, लक्ष्य-प्राप्ति, एकीकरण तथा प्रतिमानात्मक स्थायित्व एवं तनाव-नियंत्रण। सामाजिक व्यवस्था के रूप में समाज को अपना अस्तित्व एवं संतुलन बनाए रखने के लिए भौगोलिक तथा सामाजिकै सांस्कृतिक पर्यावरण से अनुकूलन करना पड़ता है। इस अनुकूलन हेतु प्रत्येक सामाजिक व्यवस्था में एक विशेष प्रकार की यांत्रिकी पायी जाती है। अनुकूलन से संबंधित प्रकार्यात्मक उप-व्यवस्था को अर्थव्यवस्था कहते हैं जो कि आर्थिक संस्थाओं से संबंधित है। इसमें मुख्यतः सम्पत्ति, श्रम-विभाजन, विनिमय एवं बाजार तथा विभिन्न प्रकार की अर्थव्यवस्थाओं को सम्मिलित किया जाता है।
सामाजिक व्यवस्था के रूप में समाज की दूसरी महत्त्वपूर्ण समस्या संबंधी पूर्वापेक्षा लक्ष्य-प्राप्ति है। इसके अनुरूप जो प्रकार्यात्मक उप-व्यवस्था होती है उसे राज-व्यवस्था कहते हैं जो कि राजनीतिक संस्थाओं से संबंधित है। इसमें मुख्य रूप से राज्य तथा सरकार को सम्मिलित किया जाता है क्योंकि इनके द्वारा ही लक्ष्यों का निर्धारण होता है और लक्ष्यों के बीच साधनों का वितरण होता है। एकीकरण की समस्या के अनुरूप प्रत्येक सामाजिक व्येवस्था में धार्मिक एवं कानूनी उप-व्यवस्थाएँ पाई जाती हैं। इनका संबंध क्रमशः धार्मिक एवं वैधानिक संस्थाओं से है। धार्मिक संस्थाओं में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान धर्म को दिया जाता है। प्रतिमानात्मक स्थायित्व एवं तनाव-नियंत्रण संबंधी समस्या के समाधान हेतु शैक्षिक एवं नातेदारी उप-व्यवस्थाएँ पाई जाती हैं। इस प्रकार, सामाजिक व्यवस्था के रूप में समाज को बनाए रखने के लिए आर्थिक संस्थाओं, राजनीतिक संस्थाओं तथा धार्मिक संस्थाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
राजनीतिक संस्थाओं का अर्थ
राजनीतिक संस्थाओं का वृहद् अध्ययन राजनीतिशास्त्र में किया जाता है। चूंकि समाजशास्त्र सभी प्रकार के संबंधों का अध्ययन करता है, इसलिए राजनीतिक संस्थाओं का अध्ययन भी इसके अंतर्गत किया जाता है। राजनीतिक संस्थाएँ सामाजिक जीवन की अत्यंत महत्त्वपूर्ण संस्थाएँ हैं। राजनीतिक संस्थाओं का संबंध शक्ति के वितरण से है तथा इनके द्वारा ही समाज में सामाजिक नियंत्रण का कार्य किया जाता है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार कार्य करना चाहता है और यदि सभी व्यक्ति ऐसा करने लगे तो सामाजिक व्यवस्था नष्ट हो जाएगी। शांति तथा नियंत्रण बनाए रखने के लिए राजनीतिक संस्थाओं का महत्त्व सभी युगों में रहा है और आज भी है। व्यक्ति राजनीतिक संस्थाओं द्वारा अपनी अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। समाज में व्यवस्था, प्रगति व शांति बनाए रखने का उत्तरदायित्व राजनीतिक संस्थाओं एवं समितियों पर ही है।
बॉटोमोर के अनुसार राजनीतिक संस्थाएँ समाज में शक्ति के वितरण से संबंधित हैं। इस संदर्भ में, राज्य के बारे में वेबर का विचार है कि राज्य एक ऐसा मानवीय समुदाय है जिसका एक निश्चित भौगोलिक सीमा में भौतिक बल के वैज्ञानिक प्रयोग का एकाधिकार होता है और जो इस अधिकार को सफलतापूर्वक लागू करती है। इस प्रकार राज्य सामाजिक नियंत्रण का एक महत्त्वपूर्ण अभिकरण है। जिसके कार्य कानून द्वारा किए जाते हैं। राज्य संपूर्ण समाज नहीं अपितु समाज की एक संस्था मात्र है।
राजनीतिक संस्थाओं का महत्त्व
राजनीतिक संस्थाओं की समाज तथ व्यक्तियों की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। राजनीतिक संस्थाएँ सामाजिक व्यवस्था के रूप में राज्य की एक प्रमुख प्रकार्यात्मक समस्या, लक्ष्य-प्राप्ति का समाधान करने में सहायता प्रदान करती है। राज्य तथा सरकार द्वारा केवल लक्ष्य ही निर्धारित नहीं किए जाते अपितु इन लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु अनिवार्य साधन भी उपलब्ध कराए जाते हैं। राजनीतिक संस्थाएँ ही समाज में कानून एवं व्यवस्था बनाए रखने में सहायता प्रदान करती है। राज्य, सरकार तथा कानून के डर से ही सभी नागरिक सामाजिक मान्यताओं के अनुरूप व्यवहार करने का प्रयास करते हैं। जो व्यक्ति कानूनों का पालन नहीं करते उनको राज्य दंडित करता है। राज्य एक सर्वशक्तिशाली संस्था है तथा इसे व्यक्ति का जीवन लेने अर्थात् उसे मृत्युदंड तक देने का अधिकार प्राप्त होता है। आर्थिक साधनों की प्राप्ति हेतु होने वाली होड़ को भी राजनीतिक संस्थाएँ ही नियमित करती है। शैक्षिक उप-व्यवस्था एवं अन्य उप-व्यवस्थाओं को दिशा-निर्देश देने का कार्य भी राजनीतिक संस्थाओं द्वारा ही किया जाता है। इस प्रकार, राजनीतिक संस्थाएँ सामाजिक व्यवस्था तथा इसकी निरंतरता को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं।
राज्य का अर्थ एवं परिभाषाएँ
समाजशास्त्रीय दृष्टि से राज्य एक ऐसी संस्था है जो कि शक्ति के वितरण तथा इसके प्रयोग के एकाधिकार से संबंधित है। राज्य का अर्थ जानने के लिए राज्य की परिभाषाओं का विश्लेषण करना अनिवार्य है। इसकी प्रमुख परिभाषाएँ निम्न प्रकार हैं-
⦁ गिलिन एवं गिलिन (Gillin and Gillin}.के अनुसार-“एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में निवास करने वाले व्यक्तियों के प्रभुता-संपन्न राजनीतिक संगठन को हम राज्य कहते हैं।”
⦁ रौसेक (Roucek) के अनुसार-“संपूर्ण समाज के संदर्भ में, राज्य लोगों को ऐसी समिति है जो राजनीतिक उद्देश्यों से बनाई जाती है।”
⦁ मैकाइवर (Maclver) के अनुसार-“राज्य एक ऐसी समिति है जो कानून द्वारा शासनतंत्र से क्रियांवित होती है और जिसे निश्चित भू-प्रदेश में सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने के सर्वोच्च अधिकार प्राप्त होते हैं।”
⦁ फेयरचाइल्ड (Fairchild) के अनुसार-“राज्य समाज की वह संस्था, पहलू या माध्यम है जो कि बल प्रयोग की सामर्थ्य एवं अधिकार रखती है, अर्थात् जो बलपूर्वक नियंत्रणं लागू कर सकती है। यह सामर्थ्य समाज के सदस्यों को नियंत्रित करने के काम भी आ सकती है और अन्य समाजों के विरुद्ध भी।”
⦁ जिसबर्ट (Gisbert) के अनुसार-“राज्य कानून एवं राजनीतिक मामले में अपील की सबसे अंतिम अदालत है; अत: यह प्रभुसत्ताशाली एवं एक अर्थ में निरपेक्ष है।”
इन परिभाषाओं से स्पष्ट हो जाता है कि राज्य मनुष्यों द्वारा निर्मित एक राजनीतिक संगठन है। इस राजनीतिक संगठन का एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र होता है। राज्य का काम चलाने के लिए शासनतंत्र या सरकार होती है, जो राज्य का संस्थात्मक पहलू है। राज्य की अपनी प्रभुसत्ता होती है। राज्य के सभी नियमों का पालन करना उस राज्य के सदस्यों के लिए अत्यंत आवश्यक है। यदि कोई व्यक्ति इसका पालन नहीं करता, तब राज्य अपनी प्रभुसत्ता के आधार पर दंड देने का अधिकार रखता है। ऎसेक (Roucek) ने ठीक ही लिखा है कि “क्योंकि सरकार की सारी शक्ति व्यक्तियों के हाथ में ही निहित रहती है तथा वे ही उसका प्रयोग करते हैं अतः सरकार की संस्था बिना, राज्य की धारणा की कोई वास्तविकता नहीं।’
इस प्रकार, समाजशास्त्रीय दृष्टि से राज्य एक ऐसी संस्था है जो कि अन्य संस्थाओं से भिन्न है। इस संस्था के पास शक्ति भी होती है और उस शक्ति के प्रयोग का अधिकार भी। इसी आधार पर राज्य प्रत्येक नागरिक को अपना मत मनवाने को बाध्य कर सकता है। जो विद्वान संस्था को एक समिति मानते हैं वे भी इस बात से सहमत हैं कि इस समिति का संस्थागत रूप राज्य के कानून एवं व्यवस्थाएँ होती हैं।
राज्य के प्रमुख कार्य
मैकाइवर ने राज्य के कार्यों की विवेचना निम्नांकित प्रकार से की है-
⦁ वे कार्य जिन्हें केवल राज्य ही कर सकता है-कानून एवं व्यवस्था को बनाए रखना केवल राज्य के वश की ही बात है क्योंकि राज्य के पास शक्ति होती है तथा उसे इस शक्ति का प्रयोग । करने का पूरा अधिकार होता है। राज्य ही सार्वभौमिक रूप से लागू होने वाले कानूनों को निर्माण करता है, सभी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के समान जीवन-अवसर प्रदान करता है तथा सबको समान सुविधाएँ प्रदान करता है। सार्वजनिक न्याय का कार्य भी राज्य द्वारा ही किया जाता है।
⦁ वे कार्य जिन्हें राज्य कर ही नहीं सकता-ये वे कार्य हैं जिन्हें राज्य करने में असमर्थ है। उदाहरणार्थ-राज्य जनमत पर नियंत्रण नहीं कर पाता। राज्य व्यक्तियों की नैतिकता पर भी नियंत्रण नहीं लगा सकता। राज्य व्यक्तियों के बाह्य व्यवहार पर रोक लगाने हेतु कानून पारित कर सकता है, परंतु व्यक्ति किस सीमा तक उन कानूनों का पालन करेंगे, यह एक दूसरी बात है।
⦁ वे कार्य जिन्हें राज्य अच्छी प्रकार से कर सकता है–ये वे सामाजिक कार्य हैं जिन्हें राज्य के अतिरिक्त कोई अच्छी समिति या संस्था नहीं कर सकती अपितु राज्य इन्हें अन्य समितियों एवं संस्थाओं के मुकाबले बहुत अच्छी प्रकार से कर सकता है। राज्य अपने साधनों से प्राकृतिक साधनों का सर्वाधिक शोषण करता है। वनों, खानों तथा सीमाओं इत्यादि की सुरक्षा राज्य से अच्छी कोई नहीं कर सकता। राज्य सार्वजनिक शिक्षा की व्यवस्था करता है प्रतियोगिता को नियमित करता है। सभी नागरिकों का समान कल्याण राज्य से बेहतर कोई अन्य संस्था नहीं कर सकती है।
⦁ वे कार्य जिन्हें राज्य ठीक प्रकार से नहीं कर सकता है-वे वे कार्य हैं जो राज्य द्वारा ठीक प्रकार नहीं किया जा सकते। अन्य समितियाँ एवं संस्थाएँ इन्हें राज्य से ज्यादा अच्छी तरह कर सकती है। उदाहरणार्थ-राज्य हमारी धार्मिक एवं सांस्कृतिक आवश्यकताओं की पूर्ति अच्छी प्रकार से नहीं कर पाता धार्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति धार्मिक संस्थाओं द्वारा अधिक अच्छे प्रकार से की जा सकती है। राज्य से व्यक्ति उतना अपनत्व प्राप्त नहीं कर पाता जितना उसे व्यक्तिगत, धार्मिक व आर्थिक संस्थाओं एवं समितियों से मिल सकता है।
राज्य तथा सरकार में अंतर
अधिकतर विद्वान राज्य को एक समिति मानते हैं तथा इस बात पर बल देते हैं कि राज्य अपने लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु कुछ संस्थागत नियमों को मान्यता देता है। सरकार समिति का संस्थागत पक्ष है। यद्यपि सरकार का निर्माण व्यक्तियों के द्वारा ही होता है तथापि सरकार स्वयं अपने आप में एक व्यवस्था है। क्योंकि यह नियमबद्धता एवं निश्चित कार्यप्रणाली से संबद्ध होती है। सरकार राज्य की सर्वाधिक प्रभावशाली संस्था के रूप में कार्य करती है। एण्डरसन तथा पार्कर (Anderson and Parker) के अनुसार सरकार तीन प्रकार के प्रमुख कार्य करती है—वैधानिक या व्यवस्थापिका संबंधी कार्य, कार्यपालिका संबंधी कार्य तथा न्यायपालिका संबंधी कार्य।
राज्य तथा सरकार में निम्नलिखित प्रमुख अंतर पाए जाते हैं-
⦁ राज्य व्यक्तियों का एक विशाल राजनीतिक संगठन है जिसका निर्माण निश्चित भौगोलिक सीमाओं के अंदर रहने वाले व्यक्तियों द्वारा किया जाता है अर्थात् राज्य की परिधि सीमित होती है। इसके विपरीत, सरकार एक संस्था है अर्थात् यह वह साधन है जिसके द्वारा राज्य अपने राजनीतिक लक्ष्यों को पूरा करता है।
⦁ राज्य बहुत-कुछ स्थायी होता है, जबकि सरकार में परिवर्तन होता रहता है। अन्य शब्दों में, राज्य अपेक्षाकृत स्थायी होता है, जबकि सरकार परिवर्तनशील होती है।
⦁ राज्य एक साध्य है, जबकि सरकार उस साध्य को प्राप्त करने का एक साधन-मात्र है।
⦁ राज्यों की आधारभूत विशेषताएँ एकसमान हो सकती हैं, परंतु दो राज्यों की सरकारों में पूरी तरह से समानता नहीं पाई जाती है।