समाजशास्त्र में अनुसंधानकर्ता के अपने मूल्यों एवं पूर्वाग्रहों द्वारा प्रभावित होने तथा इस नाते वस्तुनिष्ठ अध्ययन न कर पाने की समस्या का समाधान करने के अनेक उपाय खोजने का प्रयास किया गया है। इसकी पहली पद्धति अनुसंधान के विषय के बारे में अपनी भावनाओं तथा विचारों को लगातार कठोरता से जाँचना है। अधिकांशत: समाजशास्त्री अपने कार्य के लिए किसी बाहरी व्यक्ति के दृष्टिकोण को ग्रहण करने का प्रयास करते हैं वे अपने आपको तथा अपने अनुसंधान कार्यों को दूसरों की आँखों से देखने का प्रयास करते हैं। इसी पद्धति को प्रतिबिंबता’ अथवा ‘स्व-प्रतिबिंबता’ कहा जाता है। समाजशास्त्री लगातार अपनी मनोवृत्तियों तथा मतों की स्वयं जाँच करते रहते हैं। वह अपने अनुसंधान से संबंधित अन्य व्यक्तियों के मतों को सावधानीपूर्वक अपनाते रहते हैं। प्रतिबिंबता का एक व्यावहारिक पहलू किसी व्यक्ति द्वारा किए जा रहे कार्य का सावधानीपूर्वक वर्णन करना है। भले ही समाजशास्त्री वस्तुनिष्ठ होने का भरसक प्रयास क्यों न करें, तथापि अवचेतन पूर्वाग्रह की संभावना सदैव बनी रहती है। पाठकों को अपने पूर्वाग्रह की संभावना से सचेत कर उन्हें मानसिक रूप से इसकी क्षतिपूर्ति करने के लिए तैयार किया जा सकता है।