परिवार में आचरण के कुछ मानक स्तर, विवाह के तौर-तरीके, संबंधों के अर्थ, पारस्परिक उम्मीदें तथा उत्तरदायित्व होते हैं। परिवार को बच्चे की प्रथम पाठशाला माना गया है। ऐसा इसलिए कहा जाता है क्योंकि बच्चा ही शिशु को जैविक प्राणी से सामाजिक प्राणी बनाता है अर्थात् उसे सामाजिक मूल्यों, प्रतिमानों एवं आदर्शों से परिचय कराता है। जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है, वैसे-वैसे परिवार के सदस्य उसे बोलना, चलना, बड़ों को नमस्ते करना, लिंगानुसार कपड़े पहनना आदि सिखाते हैं। समाजीकरण की यह प्रक्रिया एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक निरंतर नियमित रूप से होती रहती है। परिवार की अपनी एक संरचना होती है जिमसें प्रत्येक सदस्य का एक निश्चित स्थान (प्रस्थिति) एवं भूमिका होती है। वह अपनी निर्धारित प्रस्थिति के अनुरूप भूमिका का निर्वाह करते हुए परिवार को बनाए रखने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। सामाजिक प्रतिमानों के अनुरूप पुरुषों एवं महिलाओं की प्रस्थिति एवं क्रम निर्धारित होता है। विवाहोपरांत सामाजिक प्रतिमानों के अनुरूप लड़की लड़के के परिवार में चली जाती है, जबकि लड़के के विवाह के समय दूसरे परिवार की लड़की लड़के के परिवार की सदस्य बन जाती है। इसके साथ ही, परिवार में वृद्ध सदस्यों की मृत्यु एवं नए सदस्यों का प्रवेश निरंतर होता रहता है। इसीलिए परिवार निरंतर अपना अस्तित्व बनाए रखता है। ऐसा नहीं है कि परिवार में परिवर्तन नहीं होता, अपितु परिवर्तन के बावजूद परिवार की संरचना में निरंतरता पायी जाती है।