क्या आधुनिक समाजों में प्रतिस्पर्धा सकारात्मक एवं आवश्यक है? यह एक वाद-विवाद का प्रश्न है। एक तरफ इसका पक्ष लेने वाले लोगों का कहना है कि आधुनिक युग में प्रतिस्पर्धा के बिना समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। प्रतिस्पर्धा के संगठनात्मक दृष्टि से अच्छे परिणाम होते हैं। क्योंकि इससे प्रत्येक व्यवसाय में अच्छे लोगों को आगे आने का अवसर प्राप्त होता है। यदि समाज के द्वारा निर्धारित नियमों के भीतर प्रतिस्पर्धा होती है तो यह व्यक्तित्व के विकास में भी सहायता प्रदान करती है। प्रतिस्पर्धा में लगे व्यक्ति अन्यों के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं जिससे उनका दृष्टिकोण विस्तृत बनता है, बोध शक्ति बढ़ती है और सहानुभूति गहरी होती है। ये सभी बातें व्यक्तित्व के विकास को प्रोत्साहन देती हैं। इससे समाज में प्रगति होती है तथा सामाजिक एकता बनाए रखने में भी सहायता मिलती है। यह व्यक्ति, समूह एवं समाज की दृष्टि से प्रकार्यात्मक है और इसी दृष्टि से यह एक संगठनात्मक प्रक्रिया मानी जाती है। प्रतिस्पर्धा कार्यों को अच्छी प्रकार से करने की प्रेरणा देती है, यह महत्त्वाकांक्षाओं में वृद्धि करती है तथा प्रतिद्वंद्वी की चुनौती को स्वीकार कर अपनी योग्यता दिखाने का अवसर प्रदान करती है।
प्रतिस्पर्धा की सकारात्मक भूमिका एवं आवश्यकता के विपक्ष में जो दिए जाते हैं उनमें बहुधा प्रतिस्पर्धा का कटु रूप धारण कर लेना प्रमुख है। प्रतियोगी अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए सभी नियमों को तोड़कर अवैधानिक साधन अपनाने लगते हैं। कई बार कटुता इतनी अधिक हो जाती है कि प्रतिद्वद्वियों में संघर्ष तक हो जाता है। इसी दृष्टि से इसके असहयोगी परिणामी की विवेचना की जाती है। गिलिन तथा गिलिन जैसे समाजशास्त्रियों के मतानुसार प्रतिस्पर्धा सामाजिक विघटन के लिए भी कुछ सीमा तक उत्तरदायी है।
जे०एस० मिल जैसे उदारवादियों ने भी प्रतिस्पर्धा के प्रभाव को अधिकतर नुकसानदायक माना है। उनका तर्क है कि प्रतिस्पर्धात्मक संघर्ष की आवश्यकताओं को थोपने से समाज में व्यक्तिवाद का तीव्रता से विस्तार होता है।
इतना ही नहीं, प्रतिस्पर्धा आविष्कारों को प्रोत्साहन देती है और कई बार व्यक्ति उन आविष्कारों के कारण उत्पन्न परिवर्तन से अनुकूलन नहीं रख पाते। ऐसी नवीन परिस्थिति में सामाजिक विघटन को प्रोत्साहन मिलता है क्योंकि इसमें असामंजस्य की स्थिति विकसित हो जाती है। सामाजिक एकता की बजाय सामाजिक विघटन को प्रोत्साहन देकर यह अपनी असहयोगी भूमिका निभाती है। साथ ही, अनियंत्रित प्रतिस्पर्धा में घृणा और हिंसा की भावना आ जाती है। ऐसी परिस्थिति में प्रतिस्पर्धा हिंसा तथा संघर्ष में भी बदल जाती है और समाज, समूह तथा व्यक्ति के लिए विघटनकारी हो जाती है।