भूमि-संघर्ष मुख्य रूप से भू-पतियों (भू-स्वामियों) तथा किसानों अथवा किसानों एवं साहूकारों के बीच होते रहे हैं। भारतीय कृषकों ने अंग्रेजी शासनकाल में भारतीय कृषकों का साहूकारों एवं जमींदारों के दमन और उत्पीड़न के विरुद्ध आवाज उठाने का लम्बा इतिहास रहा है। सम्पन्न कृषकों एवं भूमिहीन कृषकों में संघर्ष हो रहे हैं। टी०के० ओमन ने भूदान-ग्रामदान आंदोलन के अध्ययन में एक कृषक एवं साहूकार के बीच भूमि-संघर्ष का उल्लेख किया। हरबक्श नामक एके राजपूत ने 1956 ई० में नत्थू अहीर (पटेल) से १ 100 कर्ज के रूप में लिए तथा इसके लिए उसे अपने दो एकड़ जमीन को गिरवी रखना पड़ा। उसी वर्ष हरबक्श की मृत्यु हो गई उसके उत्तराधिकारी गणपत ने 1958 ई में जमीन को वापस लेने का दावा किया। इसके लिए उसने 200 देने की पेशकश की। नत्थू ने गणपत को जमीन वापस करने से मना कर दिया। गणपत इसके लिए कानूनी कार्यवाही का सहारा नहीं ले सका क्योंकि इस लेन-देन का कोई रिकॉर्ड उसके पास नहीं था। इन परिस्थितियों के अधीन गणपत ने हिंसा का सहारा ले 1959 ई० (ग्रामदान के एक वर्ष पश्चात्) में जबरन भूमि पर अधिकार कर लिया। गणपत, चूंकि स्वयं एक पुलिस कांस्टेबल था अतः इस मामले में उसने अफसरों पर काफी प्रभाव डाला। पटेल को पुलिस थाने में गणपत को जमीन वापस करने हेतु जबरन राजी कर लिया। इसके पश्चात् ग्रामवासियों की एक सभा बुलाई गई जिसमें पटेल को पैसा दिया गया और गणपत को अपनी जमीन वापस मिल गई।