सामाजिक स्तरीकरण (संस्तरण) एवं सामाजिक गतिशीलता ऐसी सार्वभौमिक प्रक्रियाएँ हैं जो किसी-न-किसी रूप में प्रत्येक समाज में पायी जाती हैं। आपने देखा होगा कि हममें से प्रत्येक व्यक्ति किसी-न-किसी जाति तथा एक निश्चित आय वाले समूह, जिसे वर्ग कहा जाता है, का सदस्य है। विभिन्न जातियों एवं वर्गों को सामाजिक स्तर एक जैसा नहीं होता है। इनमें एक निश्चित संस्तरण पाया जाता है। इसी को हम सामाजिक स्तरीकरण कहते हैं। समाजशास्त्र में सामाजिक स्तरीकरण का अध्ययन विशेष महत्त्व रखता है क्योंकि इसी के आधार पर समाज में तनाव तथा विरोध विकसित होते हैं। इसी के अध्ययन से हमें पता चलता है कि किसी समाज के व्यक्तियों को उपलब्ध जीवन अवसरों, सामाजिक प्रस्थिति एवं राजनीतिक प्रभाव में कितनी असमानता है।
स्तरीकरण का अर्थ एवं परिभाषाएँ
सामाजिक स्तरीकरण समाज का विभिन्न स्तरों में विभाजन है। इन स्तरों में ऊँच-नीच या संस्तरण पाया जाता है। इसके अंतर्गत कुछ विशेष स्थिति वाले व्यक्तियों या समूहों को अधिक अधिकार, प्रतिष्ठा एवं जीवन अवसर उपलब्ध होते हैं, जबकि इससे निम्न स्थिति वाले व्यक्तियों या समूहों को ये सब कम मात्रा में उपलब्ध होते हैं। इस प्रकार, समाज के विभिन्न समूहों में पायी जाने वाली आर्थिक, राजनीतिक व सामाजिक असमानता को ही स्तरीकरण कहा जाता है। यह वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा मनुष्यों और समूहों को प्रस्थिति के पदानुक्रम में न्यूनाधिक स्थायी रूप से श्रेणीबद्ध किया जाता है। यह एक दीर्घकालीन उद्देश्य वाली सचेतन प्रक्रिया है। समाजशास्त्रियों द्वारा सामाजिक स्तरीकरण को विभिन्न प्रकार से परिभाषित किया गया है प्रमुख परिभाषाएँ इस प्रकार हैं-
जिस्बर्ट (Gisbert) के अनुसार-“सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ समाज को कुछ ऐसी स्थायी श्रेणियों तथा समूहों में बाँटने की व्यवस्था से है जो कि उच्चता एवं अधीनता के संबंधों से परस्पर संबद्ध होते हैं। इस परिभाषा में उच्चता एवं अधीनता के आधार पर समूह को विभाजित किया जाना ही स्तरीकरण माना गया है। इसमें दो बातें महत्त्वपूर्ण हैं—प्रथम, यह किस जिस आधार से समूह को स्तरीकृत किया जाता है वह स्थिर रहती है, तथा द्वितीय, उच्चता तथा निम्नता के आधार पर विभिन्न समूह प्रतिष्ठित होते हैं और वे परस्पर संबंध रखते हुए सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखते हैं।
सदरलैण्ड एवं वुडवर्ड (Sutherland and Woodward) के अनुसार-“साधारणतः स्तरीकरण अंत:क्रिया अथवा विभेदीकरण की वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा कुछ व्यक्तियों को दूसरों की तुलना में उच्च स्थिति प्राप्त हो जाती है। इस परिभाषा से स्पष्ट हो जाता है कि स्तरीकरण का आधार प्रस्थिति है। समाज को प्रस्थिति के आधार पर विभाजित किया जाता है। उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि सामाजिक स्तरीकरण से तात्पर्य भौतिक या प्रतीकात्मक लाभों तक पहुँच के आधार पर समाज में समूहों के बीच की संरचनात्मक असमानताओं के अस्तित्व से है। इसकी तुलना धरती की सतह में चट्टानों की परतों से की जाती है। समाज को एक ऐसे अधिक्रम के रूप में देखा जाता है जिसमें कई परतें शामिल हैं। इस अधिक्रम में अधिक सुविधापात्र शीर्ष पर तथा कम सुविधापात्र तल के निकट हैं।
भारतीय समाज में स्तरीकरण के उदाहरण
भारतीय समाज में जब हम अपने आस-पड़ोस का प्रेक्षण करते हैं तो हमें जाति के आधार पर ऊँच-नीच दिखाई देती है। जाति पर आधारित स्तरीकरण की व्यवस्था में व्यक्ति की स्थिति पूरी तरह से जन्म पर आधारित होती है। विभिन्न जातियों की सामाजिक प्रतिष्ठता में अंतर होता है तथा उनमें ऊँच-नीच के आधार पर खान-पान, विवाह, सामाजिक सहवास इत्यादि पर भी प्रतिबन्ध पाए जाते हैं। परंपरागत रूप से प्रत्येक जाति का एक निश्चित व्यवसाय होता था। अस्पृश्यता से जाति व्यवस्था में पायी जाने वाली ऊँच-नीच का पता चलता है। अस्पृश्य जातियों को अपवित्र माना जाता था तथा उनसे अन्य जातियाँ दूरी बनाए रखती थीं। समकालीन भारतीय समाज में यद्यपि जाति व्यवस्था में अनेक परिवर्तन हुए हैं, तथापि जातिगत भेदभाव आज भी स्पष्ट देखे जा सकते हैं।
भारत में समाजिक स्तरीकरण का दूसरा आधार, आर्थिक आधार पर निर्मित होने वाले वर्ग हैं। भू-पति एवं कारखानों के मालिक भूमिहीन एवं श्रमिक वर्ग से कहीं अधिक सुविधा संपन्न होते हैं तथा विविध रूपों में अधीनस्थ वर्गों का शोषण करते हैं। बहुत-से विद्वान् अब यह मानने लगे हैं कि जातिगत भेदभाव के साथ-साथ भारत में आर्थिक आधार पर ऊँच-नीच भी अधिक हो गई है। इसीलिए आस-पड़ोस में रहने वाले अनेक परिवार न केवल अन्य जातियों के अपितु हमसे अधिक अमीर या गरीब भी हो सकते हैं।