जाति तथा वर्ग सामाजिक स्तरीकरण के दो प्रमुख स्वरूप माने जाते हैं। जाति से अभिप्राय एक ऐसे. समूह से है जिसकी सदस्यता व्यक्ति को जन्म से मिलती है तथा जीवन-पर्यंत वह इस सदस्यता को नहीं बदल सकता। वर्ग एक खुली व्यवस्था है जिसकी सदस्यता व्यक्ति को उसकी योग्यता व गुणों के आधार पर मिलती है तथा वह इसे परिवर्तित कर सकता है। अमेरिका तथा पश्चिमी समाजों में सामाजिक स्तरीकरण का प्रमुख रूप वर्गीय स्तरीकरण ही है। भारत में जैसे-जैसे आर्थिक आधार पर सामाजिक स्तरों का निर्माण हो रहा है तथा चेतना में वृद्धि होती जा रही है, वैसे-वैसे वर्ग व्यवस्था विकसित होने लगी है।
सामाजिक वर्ग का अर्थ एवं परिभाषाएँ
जब एक ही सामाजिक स्थिति के व्यक्ति समान संस्कृति के बीच रहते हैं तो वे एक सामाजिक वर्ग का निर्माण करते हैं। इस प्रकार, सामाजिक वर्ग ऐसे व्यक्तियों का समूह हैं जिनकी सामाजिक स्थिति लगभग समान हो और जो एक-सी ही सामाजिक दशाओं में रहते हों। एक वर्ग के सदस्य एक जैसी सुविधाओं का उपभोग करते हैं। अन्य शब्दों में यह कहा जा सकता है कि सामाजिक वर्ग का निर्धारण व्यक्ति की सामाजिक-आर्थिक स्थिति के आधार पर होता है। एक-सी सामाजिक-आर्थिक स्थिति के व्यक्तियों को एक वर्ग विशेष का नाम दे दिया जाता है; जैसे-पूँजीपति वर्ग, श्रमिक वर्ग आदि। प्रमुख विद्वानों ने सामाजिक वर्ग की परिभाषाएँ इस प्रकार से दी हैं-
मैकाइवर एवं पेज (Maclver and Page) के अनुसार-“एक सामाजिक वर्ग एक समुदाय का कोई भी भाग है जो सामाजिक स्थिति के आधार पर अन्य लोगों से भिन्न है।’ लेपियर (LaPiere) के अनुसार-“एक सामाजिक वर्ग सुस्पष्ट सांस्कृतिक समूह है जिसको संपूर्ण जनसंख्या में एक विशेष स्थान अथवा पद प्रदान किया जाता है।”
ऑगबर्न एवं निमकॉफ (Ogburn and Nimkoff) के अनुसार–“सामाजिक वर्ग ऐसे व्यक्तियों का एक योग है जिनका किसी समाज में निश्चित रूप से एक समान स्तर होता है।”
क्यूबर (Cuber) के अनुसार-“एक सामाजिक वर्ग अथवा सामाजिक स्तर जनसंख्या का एक बड़ा भाग अथवा श्रेणी है जिसमें सदस्यों का एक ही पद अथवा श्रेणी होती है।”
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि सामाजिक वर्ग लगभग समान स्थिति वाले व्यक्तियों का एक ऐसा समूह है जिसके सदस्य समूह के प्रति जागरूक हैं। विभिन्न वर्गों की सामाजिक स्थिति भिन्न होती है।
सामाजिक वर्ग की प्रमुख विशेषताएँ
सामाजिक वर्ग की परिभाषाओं से इसकी अनेक मुख्य विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं जो कि निम्नलिखित हैं-
⦁ निश्चित संस्तरण-वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति कुछ श्रेणियों में विभाजित होते हैं। यद्यपि वर्गों की संख्या के बारे में विद्वानों में सहमति नहीं है। फिर भी यह निश्चित है कि कुछ वर्गों का स्थान ऊँचा और कुछ का नीचा होता है।
⦁ हर्र की सर्वव्यापकता-वर्ग मानव समाज की एक सर्वव्यापी प्रघटना है। मार्क्स के अनुसार, वर्ग व्यवस्था प्राचीनकाल से लेकर आधुनिक काल में भी किसी-न-किसी रूप में सदैव विद्यमान रही है। यद्यपि इन्होंने वर्गविहीन समाज की कल्पना की थी, परंतु अधिकांश विद्वान् वर्गविहीन समाज को केवल एक दिवास्वप्न मानते हैं क्योंकि मानव जीवन के इतिहास में इसकी उपलब्धि संभव नहीं है।
⦁ वर्ग चेतना-वर्ग चेतना के कारण वर्ग विशेष के सदस्यों में समानता की भावना प्रोत्साहित होती है व उस वर्ग को स्थायित्व प्राप्त होता है। कार्ल मार्क्स ने वर्ग चेतना को वर्ग के निर्माण की एक अनिवार्य विशेषता माना है क्योंकि केवल समान आर्थिक स्थिति ही वर्ग के निर्धारण में पर्याप्त नहीं है।
⦁ अर्जित सदस्यता-वर्ग की सदस्यता जन्म द्वारा नहीं वरन् योग्यता और कुशलता द्वारा अर्जित होती है। व्यक्ति अपनी क्षमता एवं योग्यता से वर्ग की सदस्यता प्राप्त कर सकता है। एक व्यक्ति, जो निम्न वर्ग का सदस्य है, प्रयत्न करने से उच्च वर्ग का सदस्य बन सकता है। ठीक उसी प्रकार, एक उच्च वर्ग का सदस्य अपनी अयोग्यता के कारण निम्न वर्ग का सदस्य बन्न सकता है।
⦁ मुक्त व्यवस्था-वर्ग जाति के समान बंद व्यवस्था न होकर मुक्त व्यवस्था है। किसी व्यक्ति का वर्ग उसकी परिस्थिति के अनुसार परिर्वितत भी हो सकता है। इसी गतिशीलता के कारण इसे मुक्त व्यवस्था कहा गया है। प्रत्येक व्यक्ति को समान अवसर उपलथ्ध हैं जिससे कि वह अपने गुणों, योग्यता तथा क्षमता के आधार पर उच्च वर्ग का सदस्य बन सके। उदाहरण के लिए एक सामान्य श्रमिक अपनी मेहनत, लगन व योग्यता से उसी फैक्ट्री का संचालक तक बन सकता है। जिसमें कि वह काम करता है।
⦁ सीमित सामाजिक संबंध–प्रत्येक वर्ग के समुदाय अपने ही वर्ग के सदस्यों से संबंध रखते हैं। सामान्यतः उच्च वर्ग के सदस्य निम्न वर्ग के सदस्यों से संबंध स्थापित करने में सम्मान की हानि समझते हैं अर्थात् उनमें उच्चता की भावना होती है। ठीक इसके विपरीत, निम्न वर्ग के लोगों में निम्नता की भावना होने के कारण, वे उच्च वर्ग के लोगों से मिलने या संबंध बढ़ाने में झिझक महसूस करते हैं। इसका यह अभिप्राय नहीं है कि वर्ग व्यवस्था में भी जाति की तरह अन्य समूहों के साथ रखने एवं खाने-पीने पर प्रतिबंध पाए जाते हैं। इसमें केवल अपने वर्ग के सदस्यों के साथ संपर्कों को प्राथमिकता दी जाती है।
⦁ आर्थिक आधार-वर्ग निर्माण में आर्थिक आधार को ही प्रधानता दी जाती है। विशेषकर माक्र्स ने वर्ग निर्माण में आर्थिक आधार को प्रधानता दी है। सामान्यतः समाज तीन प्रमुख वर्गों में विभक्त होता है—
⦁ उच्च वर्ग,
⦁ मध्यम वर्ग तथा
⦁ निम्न वर्ग। इन वर्गों को पुनः
निम्नलिखित तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-
⦁ सामान्य जीवन-यद्यपि प्रत्येक वर्ग के सदस्य को किसी भी प्रकार के जीवन-यापन की स्वतंत्रता होती है। फिर भी, वर्ग के सदस्यों से यह आशा की जाती है कि जिस प्रकार का वर्ग हो उसकी के अनुरूप सदस्य जीवन-यापन करें। उच्च,मध्यम एवं निम्न, तीनों वर्गों में से प्रत्येक का एक विशिष्ट जीवन प्रतिमान होता है और उससे संबंधित सदस्य उसे अपनाते हैं। इतना ही नहीं, एक वर्ग के सदस्यों के जीवन अवसरों में भी समानता पायी जाती है।
⦁ सामाजिक प्रस्थिति का निर्धारण–वर्ग सामाजिक प्रस्थिति का निर्धारण करता है। व्यक्ति जिस वर्ग का सदस्य होता है उसी के अनुरूप समाज में उसकी प्रस्थिति निर्धारित हो जाती है। पंतु यह प्रस्थिति स्थायी नहीं होती है, क्योंकि मुक्त व्यवस्था होने के कारण स्वयं वर्ग की सदस्यता व्यक्ति की योग्यता के आधार पर परिवर्तित हो सकती है।