भारतीय समाज में सामाजिक स्तरीकरण की एक अनुपम व्यवस्था पायी जाती है जिसे जाति प्रथा कहते हैं। जाति की सदस्यता व्यक्ति को जन्म से ही मिल जाती है तथा वह संपूर्ण जीवन उसी का सदस्य बना रहता है अर्थात् जाति की सदस्यता को किसी भी कार्य से बदला नहीं जा सकता। इसीलिए इसे सामाजिक स्तरीकरण की बंद व्यवस्था भी कहा जाता है। जातियों की सामाजिक स्थिति में काफी अंतर पाया जाता है अर्थात् इनमें संस्तरण पाया जाता है।
जाति का अर्थ एवं परिभाषाएँ
समाज में व्यक्ति की स्थिति उसके जन्म लेने के स्थान व समुह से निर्धारित होती है। जाति भी व्यक्तियों का एक समूह है। जाति कुछ विशिष्ट सांस्कृतिक प्रतिमानों को मानने वाला वह समूह है जिसके सदस्यों में रक्त शुद्धि होने का विश्वास किया जाता है, जिसकी सदस्यता व्यक्ति जन्म से ही प्राप्त कर लेता है। और जन्म भर उस सदस्यता का त्याग नहीं करता है। इस प्रकार का समूह सामान्य संस्कृति का अनुसरण करता है। इस समूह के सदस्य अन्य किसी समूह के सदस्य नहीं होते हैं और न किसी बाहर के समूह के सदस्य इस समूह के सदस्य हो सकते हैं। इस प्रकार जाति एक बंद वर्ग है।
‘जाति’ शब्द अंग्रेजी के ‘कास्ट’ (Caste) शब्द का हिंदी अनुवाद है जो पुर्तगाली भाषा के ‘कास्टा’ (casta) शब्द से बना है। इसका शाब्दिक अर्थ है ‘नस्ल’, ‘प्रजाति’ या ‘भेद’। इस शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम 1965 में गार्सिया दी ओरटा (Garcia de Orta) ने किया था। विद्वानों ने जाति की परिभाषा भिन्न-भिन्न आधारों पर की है। प्रमुख विद्वानों द्वारा प्रस्तुत परिभाषाएँ इस प्रकार हैं-
चार्ल्स कूल (Charles Cooley) के अनुसार-जब एक वर्ग आनुवंशिक होता है तो हम उसे जाति कहते हैं।”
हॉबेल (Hoebel) के अनुसार-“अंतर्विवाह तथा आनुवंशिकता द्वारा थोपे हुए पदों को जन्म देना ही जाति व्यवस्था है।”
मैकाइवर एवं पेज (Maclver and Page) के अनुसार-“जब सामाजिक पद पूर्णत: निश्चित हो, जो जन्म से ही मनुष्य के भाग्य को निश्चित कर दे, जीवन-पर्यंत उसके परिवर्तन की कोई आशा न हो, तब वह जन वर्ग जाति का रूप धारण कर लेते हैं।”
केतकर (Ketkar) के अनुसार-“जाति की सदस्यता उन्हीं व्यक्तियों तक सीमित होती है जो उसी जाति में जन्म लेते हैं तथा एक कठोर सामाजिक नियम अपनी जाति के बाहर विवाह करने से रोकता है।”
दत्त (Dutta) के अनुसार-“एक जाति के सदस्य जाति के बाहर विवाह नहीं कर सकते हैं। …….. अनेक जातियों में कुछ निश्चित व्यवसाय हैं। …………. मनुष्य की जाति का निर्णय जन्म से होता है।”
ऊपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि जाति व्यक्तियों का एक अंतर्विवाही समूह है जिसका एक सामान्य नाम होता है, एक परंपरागत व्यवसाय होता है, जिसके सदस्य एक ही स्रोत से अपनी उत्पत्ति का दावा करते हैं तथा काफी सीमा तक सजातीयता का प्रदर्शन करते हैं।
जाति की प्रमुख विशेषताएँ
जाति के प्रमुख लक्षणों या विशेषताओं का वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत किया जा सकता है-
1. भारतीय समाज का खंडात्मक विभाजन-जाति व्यवस्था से भारतीय समाज खंडों में विभाजित हो गया है और यह विभाजन सूक्ष्म रूप में हुआ है। प्रत्येक खंड के सदस्यों की स्थिति तथा भूमिका सुस्पष्ट व सुनिश्चित रूप से परिभाषित हुई है। घुरिये ने इसे सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता माना है। उनके शब्दों में, “इसका तात्पर्य यह है कि जाति व्यवस्था द्वारा बँधे समाज में हमारी भावना भी सीमित होती है, सामुदायिक भावना संपूर्ण मनुष्य समाज के प्रति न होकर केवल जाति के सदस्यों तक सीमित होती है तथा जातिगत आधार पर सदस्यों को प्राथमिकता दी जाती है। इस प्रकार, यह विभाजन एक नैतिक नियम है और प्रत्येक सदस्य इसके प्रति सचेत होता है। यह उन्हें अपने कर्तव्यों का ज्ञान कराता है जिसके आधार पर वे अपने पद और कार्यों में दृढ़ होते हैं। साधारणतः कर्तव्य-पालन न करने पर जाति से निष्कासन की व्यवस्था होती है। या आर्थिक दंड दिया जाता है।
2. ऊँच-नीच की परंपरा अथवा संस्तरण-जाति व्यवस्था में ऊँच-नीच की परंपरा मान्य होती है जिसमें ब्राह्मणों का स्थान सर्वोच्च होता है और निम्न स्तर शूद्र लोगों का होता है। क्षत्रिय व वैश्य लोगों की स्थिति क्रमशः इसके मध्य की होती है। पुन: ये चार वर्ण अनेक जातियों एवं उपजातियों में विभक्त हो गए हैं। हम की भावना सीमित होने से सदस्य केवल अपने वर्ण या जाति के लोगों को ही महत्त्व देते हैं और उनमें श्रेष्ठता की भावना भी जन्म लेती है। परंतु कुछ ऐसी भी जातियाँ हैं जिनमें सामाजिक दूरी इतनी कम है कि उनमें ऊँच-नीच के आधार पर जो सामाजिक संरचना स्पष्ट हुई है वही संस्तरण परंपरा है। जातीय संस्तरण रक्त की पवित्रता, पूर्वजों के व्यवसाय के प्रति आस्था व अन्यों के साथ भोजन व पानी के प्रतिबंध आदि विचारों पर आधारित होती है।
3. जन्म से जाति का निर्धारण-जाति व्यवस्था का निश्चय जन्म के साथ ही हो जाता है। व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है उसी जाति समूह में वह जीवनपर्यंत रहता है। इस निश्चय, को न तो धनाढ्यता बदल सकती है, न निर्धनता, न सफलता और न असफलता ही। जाति के ही वंशधर उस जाति के सदस्य माने जाते हैं। जाति से बहिष्कार द्वारा ही व्यक्ति निम्न जाति में जाता है,अन्य किसी भी कारक द्वारा व्यक्ति अपनी जाति की सदस्यता परिवर्तित नहीं कर सकता है। इस संदर्भ में ए०आर० वाडिया ने कहा है-“हिन्दू जन्म से ही हिंदू हो सकता है। रूढ़िवादी जाति व्यवस्था के अंतर्गत कोई भी व्यक्ति परिवर्तन के द्वारा हिंदू नहीं हो सकता है।”
4. भोजन और सामाजिक सहवास संबंधी निषेध-भारतीय जाति व्यवस्था प्रत्येक जाति के सदस्यों के लिए अपने समूह के बाहर भोजन और सामाजिक सहवास पर नियंत्रण रखती है। इन नियमों का बड़ी कठोरता से पालन किया जाता है। नगरीकरण और आवागमन के साधनों के विकास के कारण अब यह नियंत्रण नगरों एवं औद्योगिक क्षेत्रों में ढीला होता जा रहा है, पर गाँवों में यह नियंत्रण आज भी काफी मात्रा में देखा जा सकता है। प्रत्येक जाति में ऐसे नियम बड़े सूक्ष्म रूप से बनाए गए हैं जो यह निर्धारित करते हैं कि किसी जाति के सदस्य को (मुख्यतः जो ऊँची जातियों के हैं) कहाँ कच्चा भोजन करना है, कहाँ पक्का तथा कहाँ केवल जल ग्रहण करना है और कहाँ जल पीना भी निषिद्ध है। आधुनिक युग में यातायात के साधनों व शिक्षा में विकास के कारण और शासकीय प्रयत्नों आदि के कारण ये निषेध कमजोर होते जा रहे हैं। फिर भी, ग्रामीण भारत में आज की परिस्थिति में काफी हद तक ये सीमाएँ या निषेध प्रचलित हैं।
5. अंतर्विवाह–सभी जातियाँ अंतर्विवाही होती हैं अर्थात् जाति के सदस्यों को अपनी ही जाति में विवाह करना पड़ता है। यह निषेध आज बहुत जगहों में जाति तक नहीं वरन् उपजाति तक सीमित हो गया है। जाति व्यवस्था के अनुसार अंतर्जातीय विवाह अस्वीकृत हैं। वेस्टरमार्क (Westermarck) ने जाति व्यवस्था की इस विशेषता को इसका सार-तत्त्व माना है। घुरिये (Ghurye) का भी यही मत है कि जाति व्यवस्था का अंतर्विवाही सिद्धांत इतना कठोर है कि समाजशास्त्री इसे जाति व्यवस्था का प्रमुख तत्त्व मानते हैं। व्यावहारिक रूप में यह अंतर्विवाह भी भौगोलिक सीमा के अंतर्गत बँधा हुआ है। एक जाति की कई उपजातियाँ होती हैं और प्रायः एक ही प्रांत में रहने वाली उपजातियों में विवाह होते हैं।
6. परंपरागत पेशों का चुनाव-मुख्यतः सभी जातियों के कुछ निश्चित पेशे होते हैं और जाति के सदस्य अपने उन्हीं पैतृक पेशों को स्वीकार करते हैं। उन्हें छोड़ना उचित नहीं समझा जाता। जाति का परंपरागत पेशा; चाहे वह व्यक्ति की आवश्यकता की पूर्ति करे या न करे, उसे मानसिक संतोष हो या न हो; व्यक्ति को ही अपनाना पड़ता है। साधारणतः लोग अपने पैतृक पेशे को ही अपनाना उचित समझते रहे हैं। पेशों का भी निर्धारण ऊँच-नीच के आधार पर होता रहा है। यदि उच्च जाति को कोई व्यक्ति निम्न जाति के पेशों को अपमाता था तो उनका जातीय विरोध होता था। इसी प्रकार, निम्न जाति का सदस्य जब उच्च जाति के पेशों को अपनाता था तो उसका भी विरोध होता था। परंतु आजकल इन नियमों में भी शिथिलता आ गई है।
7. धार्मिक और सामाजिक निर्योग्यताएँ एवं विशेषाधिकार—जिस प्रकार जाति व्यवस्था में संस्तरण है ठीक उसी प्रकार इसमें धर्म और समाज संबंधी निर्योग्यताएँ भी हैं। प्रत्येक मानव निवास की जगह में, मुख्यतः गाँवों में, यदि देखा जाए तो अछूतों और अन्य निम्न जातियों की निवास व्यवस्था गाँव के छोर पर रहती थी। उनके धार्मिक और नागरिक अधिकार भी सीमित होते थे। इसके विपरीत, ऊँची जातियों को सभी अधिकार प्राप्त रहे हैं तथा धर्म की पूरी छूट थी। साधारणत: शारीरिक श्रम करने वाली जातियाँ निम्न समझी जाती रही हैं। त्रावनकोर के वैकर्म (Vaikam) गाँव की विशिष्ट गलियों में अछूत जातियों ने प्रवेश करने की स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए आंदोलन किया था। परंपरागत रूप से दक्षिण भारत में तो ये निर्योग्यताएँ अपनी चरम सीमा पर रही हैं। वहाँ अछूतों को कुछ विशेष सड़कों पर चलने की मनाही थी। इतिहास इस बात का उदाहरण है कि पेशवाओं और मराठों ने पूना शहर के दरवाजों के भीतर मसार और मूंग जाति के लोगों का शाम तीन बजे से सुबह नौ बजे तक प्रवेश वर्जित कर दिया था। इसके अतिरिक्त, दक्षिण भारत में अछूत सवर्णो के ऊपर अपनी छाया नहीं डाल सकते थे तथा उनके सामने नहीं जा सकते थे। ब्लेंट (Blunt) ने कहा कि गुजरात में दलित जातियाँ अपने विशिष्ट चिह्न के रूप में सींग पहना करती थीं।
8. आर्थिक असमानता-जाति व्यवस्था में आर्थिक असमानता का भी समावेश है। जाति व्यवस्था के निर्माण के साथ-साथ यह भावना भी चली कि जो निम्न है उसे कोई अधिकार नहीं होना चाहिए। निम्न जाति के कार्य, चाहे वह जीवन-यापन के लिए कितने ही उपयोगी क्यों न हों, मूल्यों की दृष्टि से हीन समझे जाते रहे हैं। इस प्रकार उनकी आय, संपत्ति और सांस्कृतिक उपलब्धियों भी बहुत कम रही हैं। उनकी शिक्षा-दीक्षा आदि का सदा से अभाव रहा है। परंपरागत रूप से भारतीय जाति व्यवस्था की यह विशेषता रही है कि सामान्यतः उच्च जातियों की आर्थिक स्थिति भी उच्च रही है और निम्न जातियों की आर्थिक स्थिति भी निम्न रही है।