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सामाजिक स्तरीकरण में लिंग की भूमिका स्पष्ट कीजिए।

या

लैगिक असमता के प्रमुख प्रकारों की विवेचना कीजिए।

या

भारत में लैगिक असमता के प्रमुख पहलू बनाइए।

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वर्तमान समय में लिंग असमता (लैंगिक असमता) संबंधी अध्ययन किसी एक राष्ट्र की सीमाओं के अंतर्गत उत्पन्न होने वाली समस्याओं में सम्मिलित विषय नहीं रहा है, वरन् यह एक अंतर्राष्ट्रीय विषय हो गया है क्योंकि आधुनिक समय में विश्व का आकार लघु होता जा रहा है। वैश्वीकरण (Globalization) एवं उदारीकरण (Liberalization) की प्रक्रियाओं ने सभी राष्ट्रों की समस्याओं को एकबद्ध कर दिया है; अत: समाजशास्त्र जैसे विषय में लिंग संबंधी असमता एवं समस्याओं का अध्ययन और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है। यह विषय इस तथ्य पर बल देता है कि शारीरिक संरचना के आधार पर पुरुष तथा स्त्री के मध्य विद्यमान प्राकृतिक असमानताओं को तो स्वीकार किया जा सकता है, परंतु सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक आधार पर पुरुष तथा स्त्री में भेदभाव करने का कोई औचित्य नहीं है। ऐसा करना मानवता तथा मानव अधिकारों की धारणा के नितांत विपरीत है। संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार पूरे विश्व में स्त्रियाँ यद्यपि विश्व जनसंख्या के आधे भाग का प्रतिनिधित्व करती हैं तथा संपूर्ण कार्य के दो-तिहाई भाग को पूरा करती हैं, परंतु इनके पास विश्व की संपत्ति का केवल दसवाँ भाग ही है। वर्तमान समय में विश्व बैंक के द्वारा प्रतिपादित सद्-शासन (Good Governances) के सिद्धांत का संपूर्ण विश्व में जोरदार प्रचार तथा प्रसार किया जा रहा है। कानून का शासन लिंग पर आधारित भेदभाव को स्वीकार नहीं करता है। यह कानून के समक्ष सभी नागरिकों की समानता के विचार का समर्थन करता है, चाहे वे स्त्री हो या पुरुष।

लैगिक असमता का अर्थ
पुल्लिग तथा स्त्रीलिंग एक जैवकीय तथ्य है। यदि इस तथ्य के साथ किसी प्रकार की असमानता जोड़ दी जाती है तो यह एक सामाजिक तथ्य बन जाता है जिसे लैंगिक असमता’ कहा जाता है। लिंग (Gender) शब्द का प्रयोग पुरुषों तथा स्त्रियों के गुणों के कुलक तथा समाज द्वारा उनसे अपेक्षित व्यवहारों के लए किया जाता है। किसी भी व्यक्ति की सामाजिक पहचान इन्हीं अपेक्षाओं से होती है। ये अपेक्षाएँ इस विचार पर आधारित हैं कि कुछ गुण, व्यवहार, लक्षण, आवश्यकताएँ तथा भूमिकाएँ पुरुषों के लिए प्राकृतिक हैं, जबकि कुछ अन्य गुण एवं भूमिकाएँ स्त्रियों के लिए प्राकृतिक हैं। यह बात ध्यान देने योग्य है कि लिंग केवल जैवकीय तथ्य नहीं है क्योंकि लड़का या लड़की जन्म के समय यह नहीं जानते हैं कि उन्हें क्या बोलना है, किस प्रकार का व्यवहार करना है, क्या सोचना है अथवा किस प्रकार से प्रतिक्रिया करनी है। प्रत्येक समाज में पुल्लिग तथा स्त्रीलिंग के रूप में उनकी लैंगिक पहचान तथा सामाजिक भूमिकाएँ समाजीकरण की प्रक्रिया के माध्यम से निश्चित की जाती हैं। इसी प्रक्रिया द्वारा उन्हें उन सांस्कृतिक अपेक्षाओं का ज्ञान दिया जाता है जिनके अनुसार उन्हें व्यवहार करना है। ये सामाजिक भूमिकाएँ एवं अपेक्षाएँ एक संस्कृति से दूसरी संस्कृति में अथवा एक ही समाज़ के विभिन्न युगों में भिन्न-भिन्न होती हैं। पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचनाएँ एवं संस्थाएँ उन मूल्य व्यवस्थाओं एवं सांस्कृतिक नियमों द्वारा सुदृढ़ होती हैं जो स्त्रियों की हीन भावना की धारणा को प्रचारित करती हैं। प्रत्येक संस्कृति में अनेक प्रथाओं के ऐसे उदाहरण विद्यमान हैं जो स्त्रियों को दिए जाने वाले निम्न मूल्य स्थिति को परिलक्षित करते हैं। पितृसत्तात्मकता स्त्रियों को अनेक प्रकार से शक्तिहीन बना देती है। इनमें स्त्रियों के पुरुषों की तुलना में निम्न होने, उन्हें साधनों तक पहुँचने से रोकने तथा निर्णय लेने वाले पदों में सहभागिता को सीमित करने जैसी परिस्थितियाँ प्रमुख हैं। नियंत्रण के यह स्वरूप स्त्रियों को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक प्रक्रियाओं से दूर रखने में सहायता प्रदान करते हैं। स्त्रियों की अधीनता, सामाजिक-आर्थिक परिस्थिति (जैसे उनके स्वास्थ्य, आय एवं शिक्षा का स्तर) तथा उनके पद अथवा स्वायत्तता एवं अपने जीवन पर नियंत्रण के अंश के रूप में देखी जा सकती है। इस प्रकार, लिंग असमान वर्तमान समय में जीवन का सार्वभौमिक तत्त्व बन गया है। विश्व के अनेक समाजों में; विशेषकर विकासशील देशों में स्त्रियों के साथ समाज में प्रचलित विभिन्न कानूनों, रूढ़िगत नियमों के आधार पर विभेद किया जाता है तथा उनको पुरुषों के समान राजनीतिक तथा सामाजिक अधिकारों से वंचित रखा जाता है। स्त्री या फेमिनिस्ट विद्वानों के अनुसार लैंगिक असमता को स्त्री-पुरुष विभेद के सामाजिक संगठन अथवा स्त्री-पुरुष के मध्य असमान संबंधों की व्यवस्था के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।

लैगिक असमता के प्रकार
प्रत्येक समाज में लैंगिक असमता अनेक रूपों में विद्यमान रहती है। अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार प्राप्त अमर्त्य सेन (Amartya Sen) के अनुसार, लैंगिक असमता विश्व के-जापान से जांबिया, यूक्रेन से संयुक्त राज्य अमेरिका–सभी देशों में पायी जाती है, परंतु पुरुषों एवं स्त्रियों में असमता अनेक रूपों में होती है। यह एक सजातीय प्रघटना न होकर अनेक अंतर्संबंधित समस्याओं से जुड़ी प्रघटना है। इनके अनुसार लैंगिक असमता को सामान्यत: निम्नलिखित सात रूपों में देखा जा सकता है-

⦁    मृत्यु दर में असमता–विश्व के अनेक क्षेत्रों में स्त्रियों एवं पुरुषों में असमता का एक प्रमुख प्रकार सामान्यता स्त्रियों की उच्च मृत्यु दर में परिलक्षित होता है जिसके परिणामस्वरूप कुल जनसंख्या में पुरुषों की संख्या अधिक हो जाती है। मृत्यु असमती अत्यधिक मात्रा में उत्तरी अफ्रीका तथा एशिया (चीन एवं दक्षिण एशिया सहित) में देखी जा सकती है।
⦁    प्रासूतिक असमता-गर्भ में ही बच्चे के लिंग को ज्ञात करने संबंधी आधुनिक तकनीकी की उपलब्धता ने लैंगिक असमता के इस रूप को जन्म दिया है। लिंग परीक्षण द्वारा यह पता लगाकर कि होने वाला शिशु लड़की है, गर्भपात करा दिया जाता है। अनेक देशों में, विशेष रूप से पूर्व एशिया, चीन एवं दक्षिण कोरिया, सिंगापुर तथा ताईवान के अतिरिक्त भारत एवं दक्षिण एशिया में भी यह प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। यह उच्च तकनीक पर आधारित असमता है।
⦁    मौलिक सुविधा असमता–मौलिक सुविधाओं की दृष्टि से भी अनेक देशों में पुरुषों एवं स्त्रियों में असमता स्पष्टतया देखी जा सकती है। कुछ वर्ष पहले तक अफगानिस्तान में लड़कियों की शिक्षा पर पाबंदी थी। एशिया तथा अफ्रीका के अनेक देशों के साथ-साथ लैटिन अमेरिका में लड़कियों को लड़कों की तुलना में शिक्षा सुविधाएँ बहुत कम उपलब्ध हैं। इसके अतिरिक्त अनेक अन्य मौलिक सुविधाओं के अभाव के कारण स्त्रियों को अपनी प्रतिभा प्रदर्शित करने के अवसर ही प्राप्त नहीं हो पाते हैं और न ही वे अनेक सामुदिायक कार्यक्रमों में सहभागिता कर सकती हैं।
⦁    विशेष अवसर असमता-यूरोप तथा अमेरिका जैसे अत्यधिक विकसित एवं अमीर देशों के साथ-साथ अधिकांश अन्य देशों में उच्च शिक्षा तथा व्यावसायिक प्रशिक्षण में लैंगिक पक्षपात स्पष्टतया देखा जा सकता है।
⦁    व्यावसायिक असमता–व्यावसायिक असमता भी लगभग सभी समाजों में पायी जाती है। जापान जैसे देश में, जहाँ जनंसख्या को उच्च शिक्षा प्राप्त करने एवं अन्य सभी प्रकार की मौलिक सुविधाएँ उपलब्ध हैं, वहाँ पर भी रोजगार एवं व्यवसाय प्राप्त करना स्त्रियों के लिए पुरुषों की तुलना में काफी कठिन कार्य माना जाता है।
⦁    स्वामित्व असमता-अनेक समाजों में संपत्ति पर स्वामित्व भी पुरुषों एवं स्त्रियों में असमान रूप से वितरित है। गृह एवं भूमि संबंधी स्वामित्व में भी स्त्रियाँ पुरुषों की तुलना में काफी पिछड़ी हुई हैं। इसी के परिणामस्वरूप स्त्रियाँ वाणिज्यिक, आर्थिक तथा कुछ सामाजिक क्रियाओं से वंचित रह जाती हैं।
⦁    घरेलू असमता–परिवार अथवा घर के अंदर ही लैंगिक संबंधी में अनेक प्रकार की मौलिक असमानताएँ पायी जाती हैं। घर की संपूर्ण देखरेख से लेकर बच्चों के पालन-पोषण का पूरा दायित्व महिलाओं का होता है। अधिकांश देशों में पुरुष इन कार्यों में स्त्रियों की किसी प्रकार की सहायता नहीं करते हैं। पुरुषों का कार्य घर से बाहर काम करना माना जाता है। यह एक ऐसा श्रम-विभाजन है जो स्त्रियों को पुरुषों के अधीन कर देता है।

भारतीय समाज में लैगिक असमता के विभिन्न पहलू
प्रत्येक समाज में लैंगिक विषमता जीवन के लगभग सभी पहलुओं में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। भारतीय समाज के उपयुक्त उदाहरणों द्वारा लैंगिक असमान के विभिन्न पहलुओं को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है-

1. सामाजिक पहलू-सर्वप्रथम लैंगिक असमता सामाजिक पहलुओं में परिलक्षित होती हैं। सामाजिक पहलुओं में पायी जाने वाली लैंगिक असमता समाजीकरण में लिंग भेदभाव, महिलाओं का यौन शोषण एवं उत्पीड़न, शिक्षा में पिछड़ापन, अज्ञानता एवं अंधविश्वास, कुपोषण, वैधव्य एवं विवाह-विच्छेद की समस्या तथा महिलाओं के प्रति हिंसा के रूप में देखा जा सकता है। महिलाओं के प्रति हिंसा परिवार के भीतर तथा परिवार से बाहर दोनों रूपों में देखी जा सकती है। महिलाओं के प्रति हिंसा का एक अन्य गंभीर रूप बालिका वध की समस्या के रूप में प्रचलित है। दक्षिण में आज भी अनेक बालिकाओं की जन्म लेने से पहले अथवा जन्म लेने के पश्चात् हत्या कर दी जाती है। दहेज न ला पाने के कारण महिलाओं पर होने वाला अत्याचार भी उनके प्रति हिंसा का ही प्रतीक माना जा सकता है। इस प्रकार, आज भी भारतीय महिलाएँ विविध प्रकार की हिंसा का शिकार हैं।

2. आर्थिक पहलू-रोजगार में भी महिलाएँ लैंगिक असमता के कारण पुरुषों से पिछड़ी हुई हैं। उदाहरणार्थ-परंपरागत रूप से भारतीय महिलाओं का कार्यक्षेत्र घर की चहारदीवारी तक ही सीमित था। इसलिए उनके बाहर कार्य करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था। केवल कुछ निम्न जातियों की महिलाएँ घर से बाहर कृषि कार्य अथवा अन्य घरेलू कार्य करती थीं। अंग्रेजी शासनकाल में महिलाओं में भी शिक्षा का प्रचलन हुआ तथा उन्हें घर से बाहर नौकरी करने के अवसर उपलब्ध हुए। यद्यपि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् महिलाओं के रोजगार की ओर विशेष ध्यान दिया गया है, तथापि सभी प्रयासों के बावजूद आज भी भारतीय महिलाएँ रोजगार की समस्या का शिकार हैं। उन्हें पुरुषों के बराबर वेतन नहीं दिया जाता है, मातृत्व के समय अवकाश एवं अन्य सुविधाओं से उन्हें वंचित रखा जाता है तथा कई बार वे अपने सेवायोजकों के द्वारा यौन शोषण का शिकार हो जाती हैं। असंगठित क्षेत्र में ठेकेदार, कारखानों के मालिक तथा सेवायोजक उनकी निर्धनता का नाजायज लाभ उठाते हैं तथा उनका यौन शोषण करने का प्रयास करते हैं।

3. राजनीतिक पहलू-लैंगिक असमता का परिणाम राजनीतिक पहलू में भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। राजनीतिक में महिलाओं को आगे आने के उतने अवसर उपलब्ध नहीं है जितने कि पुरुषों को हैं। अब जब भारतीय महिलाओं को हर प्रकार से पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त हो चुके हैं तथा शिक्षा-प्रसार ने उन्हें अंधकार से प्रकाश में लाकर खड़ा कर दिया है तब ऐसी दशा में उन्हें राजनीतिक तथा सार्वजनिक क्षेत्र में कार्य करने से रोकना कहाँ की बुद्धिमता है? स्वतंत्रता से पूर्व भी भारतीय महिलाएँ अपने पूर्ण तन-मन से राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेती थीं। भारतीय संविधान ने उन्हें हर प्रकार के राजनीतिक और सामाजिक अधिकार प्रदान किए हैं तो उनका उपयोग करने की स्वतंत्रता देना भी आवश्यक है।

परंतु साथ ही यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि वह एक महिला माँ, पत्नी तथा बहू पहले है। और बाकी सब बाद में। उसका कर्तव्य सर्वप्रथम अपने पारिवारिक उत्तरदायत्वि को निभाना है। यदि वह अपने बाल-बच्चों की उपेक्षा करके राजनीतिक क्षेत्र में भाग लेती है तो वह अपने कर्तव्य-पथ से विमुख हो जाएगी। पारिवारिक उत्तरदायित्वों को पूरा करने के पश्चात् ही किसी महिला का राजनीति यो सार्वजनिक क्षेत्र में कार्य करना अधिक उचित प्रतीत होता है। यह एक ऐसा दृष्टिकोण है जो लैंगिक असमता पर आधारित है तथा कार्य विभाजन के आधार पर महिलाओं को घर की चहारदीवारी तक ही सीमित रखना चाहता है।

महिलाओं की स्थिति में सुधार विविध प्रकार के कारण एवं सरकारी प्रयासों द्वारा संभव हो पाया है। अब जब भारतीय महिलाओं को हर प्रकार से पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त हो चुके हैं। तथा शिक्षा-प्रसार ने उन्हें अंधकार से प्रकाश में लाकर खड़ा कर दिया है तब ऐसी दशा में उन्हें राजनीतिक तथा सार्वजनिक क्षेत्र में कार्य करने से रोकना कहाँ की बुद्धिमत्ता है? स्वतंत्रता से पूर्व भी भारतीय स्त्रियाँ अपने पूर्ण तन-मन से राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेती थीं। भारतीय संविधान ने उन्हें हर प्रकार के राजनीतिक और सामाजिक अधिकार प्रदान किए हैं तो उनका उपयोग करने की स्वतंत्रता देना भी आवश्यक है।

आज लैंगिक असमता के कारण ही भारत में राज्य विधानसभाओं एवं लोकसभा में महिलाओं के लिए एक-तिहाई स्थान सुरिक्षत रखने संबंधी विधेयक बार-बार पेश किए जाने के बावजूद पारित नहीं हो पाया है। वैसे तो उनके लिए आधे स्थान सुरक्षित होने चाहिए परंतु अनेक राजनीतिक दल उन्हें एक-तिहाई स्थान देने में भी किसी-न-किसी कारण से आना-कानी कर रहे हैं।

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