नगरीय समाज की कोई एक सर्वमान्य परिभाषा देना कठिन हैं। नगरीय समाज की परिभाषा विद्वानों ने जनसंख्या के आकार तथा घनत्व को सामने रखकर देने का प्रयास किया है। हेलबर्ट (Helbert) के अनुसार, “स्वयं सभ्यता के जन्म के समान ही नगर का जन्म भी भूत के अँधेरे में सो गया है।” किंग्स्ले डेविस (Kingsley Davis) का कहना है कि सामाजिक दृष्टि से नगर केवल जीवन की एक विधि है तथा यह एक अनुपम प्रकार के वातावरण अर्थात् नगरीय परिस्थितियों की उपज होती है। इनके अनुसार, “नगर एक ऐसा समुदाय है जिसमें सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक विषमता पायी जाती है तथा जो कृत्रिमता, व्यक्तिवादिता, प्रतियोगिता एवं घनी जनसंख्या के कारण नियंत्रण के औपचारिक साधनों द्वारा संगठित होता है।”
नगरीय समाज में हो रहे प्रमुख परिवर्तन
नगरीय समाज में हो रहे प्रमुख परिवर्तन निम्नलिखित हैं –
1. सहिष्णुता – नगरीय समाज के लोगों में रीति-रिवाजों, रहन-सहन, खान-पान की विषमता पायी जाती है किंतु फिर भी लोग ऐसा जीवन बनाए रखते हैं कि वे एक-दूसरे की बातों को सहन
करते हैं। इससे सहिष्णुता को प्रोत्साहन मिलता है।
2. विषमता में वृद्धि – नगरीय समाज के लोगों के रहन-सहन और रीति-रिवाजों में समरूपता नहीं पायी जाती है। नगरों में विभिन्न रीति-रिवाज, विचारों, व्यवसायों तथा संस्कृतियों के लोग एकत्र होते हैं जिससे उनमें विषमता आती है। अत: नगरीय समाज अत्यधिक विजातीयता वाले समुदाय होते जा रहे हैं जिससे विभिन्न समूहों में संघर्ष की स्थिति भी विकसित हो रही है।
3. नियंत्रण में शिथिलता – नगरों में कानून जैसे औपचारिक साधनों व द्वितीयक समूहों द्वारा नियंत्रण स्थापित किया जाता है। इस प्रकार के नियंत्रण में सुव्यवस्था कम ही मात्रा में स्थापित हो सकती है। नगरों में नियंत्रण के अनौपचारिक साधनों का महत्त्व समाप्त हो जाता है जिससे नियंत्रण में शिथिलता आ जाती है।
4. अप्रत्यक्ष संपर्क में वृद्धि – नगरीय समाज में लोगों के संबंधों में घनिष्ठता नहीं होती तथा उनमें प्रायः अप्रत्यक्ष संबंध पाये जाते हैं। इसका मुख्य कारण नगरों की जनसंख्या है। वास्तव में, जनसंख्या ही इतनी अधिक होती है कि सभी में प्रत्यक्ष संबंध हो ही नहीं सकते हैं। अप्रत्यक्ष संबंधों के कारण ही प्रत्यक्ष सामाजिक नियंत्रण संभव नहीं रह पाता।
5. सामाजिक गतिशीलता – यातायात के साधनों में विकास होने के कारण नगर के निवासी एक | स्थान से दूसरे स्थान को आते-जाते रहते हैं। वे आजीविका या व्यवसाय की खोज में भी इधर-उधर घूमते रहते हैं। समाज की प्रथाओं में परिवर्तन करने में भी उन्हें संकोच नहीं होता है। अतएव नगरों में सामाजिक गतिशीलता का गुण पाया जाता है।
6. व्यक्तित्व का विकास – नगरों में व्यक्ति अपनी योग्यतानुसार पद प्राप्त कर सकता है तथा अपना विकास कर सकता है। गतिशीलता के अधिक अवसर होने के कारण तथा अर्जित गुणों
की महत्ता के कारण व्यक्तित्व का विकास इच्छानुसार हो सकता है।
7. समस्याओं में वृद्धि – नगरों में विविध प्रकार की समस्याओं में निरंतर वृद्धि हो रही है। इन समस्याओं में बाल अपराध, अपराध, श्वेतवसन, अपराध, भ्रष्टाचार, मद्यपान एवं मादक द्रव्य व्यसन, वेश्यावृत्ति, निर्धनता एवं बेरोजगारी इत्यादि प्रमुख हैं।
8. ऐच्छिक संपर्क – नगरों में व्यक्ति अपनी इच्छानुसार चाहे जिसके साथ संपर्क स्थापित करे या न करे। ऐच्छिक संपर्क के कारण ही नगरों में ऐच्छिक समितियों की संख्या बढ़ने लगी है।
9. व्यक्तिवादिता – नगरों में व्यक्ति स्वार्थ की ओर ही ध्यान देता है, अतएव नगरों में सामाजिकता के स्थान पर व्यक्तिवादिता पायी जाती है। नगरीय जीवन इतना व्यस्त है कि लोगों को दूसरों के सुख-दु:ख में हिस्सा लेने का समय ही नहीं मिलता। परिवार के सदस्यों तक में व्यक्तिवाद की भावना विकसित होने लगती है।