पर्यावरणीय प्रदूषण के प्रमुख कारण
वैसे तो प्रदूषण अनेक प्रकार का होता है तथा प्रत्येक प्रकार के प्रदूषण के कुछ विशिष्ट कारण हैं, फिर भी पर्यावरण को प्रदूषित करने वाले अनेक सामान्य कारणों में से प्रमुख कारण अग्रलिखित हैं –
1. कार्बन डाइऑक्साइड की बढ़ती मात्रा – वायुमंडल में प्रमुखतः नाइट्रोजन, ऑक्सीजन तथा कार्बन डाई-ऑक्साइड गैसों का संतुलित अनुपात होता है; किंतु मानव द्वारा विभिन्न प्रकार से वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ाई जा रही है। अनुमानतः गत 100 वर्षों में केवल मनुष्य ने ही वायुमण्डल में 36 करोड़ टन कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ी है। कल-कारखानों, यातायात के साधनों, ईंधन (Fuel) के जलाने आदि से यह कार्य हो रहा है। इस गैस का अनुपात बढ़ने से दोहरी हानि होने की आशंका है—एक तो यह स्वयं हानिकारक है। और दूसरे ऑक्सीजन जैसी प्राणदायक वायु का अनुपात कम होने का खतरा है।
2. घरेलू अपमार्जकों का प्रयोग – घर, फर्नीचर, बर्तन इत्यादि की सफाई के लिए प्रयोग किए जाने वाले तथा कुछ छोटे जीवों; जैसे-मक्खी, मच्छर, खटमल, कॉकरोच, दीमक, चूहे आदि को नष्ट करने के लिए उपयोग में आने वाले पदार्थों; जैसे साबुन, सोडा, विम, पेट्रोलियम उत्पाद, फैटी अम्ल, डी०डी०टी०, गैमेक्सीन, फिनायल आदि को प्रयोग करने के बाद नालियों इत्यादि के द्वारा नदियों, झीलों आदि के जल में मिला दिया जाता है। ये पदार्थ यदि विघटित नहीं होते हैं तो खाद्य श्रृंखलाओं में चले जाते हैं और विषाक्त रूप से प्रदूषण का कारण बन जाते हैं।
3. वाहित मल का नदियों में गिराया जाना – घरों, कारखानों इत्यादि स्थानों से अपमार्जक पदार्थों | (विषैली दवाएँ, मिट्टी का तेल, शैंपू इत्यादि) को बड़े-बड़े शहरों में नालों द्वारा बहाकर करके नदियों, झीलों या समुद्र में डाल दिया जाता है जो जल को प्रदूषित करते हैं। इन पदार्थों के विघटन से फीनोल, क्रोमेट, क्लोरीन, अमोनिया, सायनाइड्स (Cyanides) आदि उत्पन्न होते हैं। जो जल के पारिस्थितिक तंत्र के लिए तरह-तरह से हानिकारक सिद्ध होते हैं।
4. उद्योगों से अपशिष्ट रासायनिक पदार्थों का निकास – विभिन्न प्रकार के उद्योगों से, जिनकी संख्या सभ्यता के साथ-साथ बढ़ रही है, धुआँ इत्यादि के साथ अनेक प्रकार के रासायनिक पदार्थ (जैसे- विभिन्न गैसे, धातु के कण, रेडियोऐक्टिव पदार्थ इत्यादि) अपशिष्ट के रूप में निकलते हैं जो वाहित जलं की तरह जल तथा वायुमंडल को प्रदूषित करते हैं।
5. स्वतः चलित निर्वातक – विभिन्न प्रकार के स्वत:चलित यातायात वाहनों; जैसे-मोटर, रेलगाड़ी, जहाज, वायुयान आदि में कोयला, पेट्रोल, डीजल इत्यादि पदार्थों के जलने से अनेक प्रकार की विषैली गैसें वातावरण में आ जाती हैं। सल्फर डाइऑक्साइड (SO2), कार्बन डाइ-ऑक्साइड (CO2), कार्बन मोनो-ऑक्साइड (CO), क्लोरीन (CI), नाइट्रोजन ऑक्साइड (NO), हाइड्रोजन फ्लोराइड (HF), फॉस्फोरस पेंटा-ऑक्साइड (P2O5), हाइड्रोजन सल्फाइड (H2S), अमोनिया (NH3) आदि हानिकारक गैसें इसी प्रकार वातावरण में बढ़ती जाती हैं।
6. रेडियोधर्मी पदार्थ – परमाणु बमों के विस्फोट तथा इसी प्रकार के अन्य परीक्षणों से रेडियोऐक्टिव पदार्थ वातावरण में आकर अनेक प्रकार से प्रदूषण उत्पन्न करते हैं। यहाँ से ये पौधों में, जंतुओं के दूध व मांस में और फिर मनुष्य के शरीर में पहुँच जाते हैं। ये अनेक प्रकार के रोग; विशेषकर कैंसर तथा आनुवंशिक रोग उत्पन्न करते हैं। इनके प्रभाव से, जीन्स (Genes) का उत्परिवर्तन (Mutation) हो जाने से संततियाँ भी रोगग्रस्त या अपंग पैदा होती हैं।
7. कीटाणुनाशक एवं अपतृणनाशक पदार्थ – विभिन्न प्रकार के अवांछनीय जीवों एवं खरपतवारों को नष्ट करने के लिए अनेक प्रकार के रासायनिक पदार्थ काम में लाए जाते हैं। इनमें से कुछ पदार्थ हैं- डी०डी०टी० (D.D.T.), मीथॉक्सीक्लोर, फीनॉल, पोटैशियम परमैंगनेट, चूना, गंधक चूर्ण, सल्फर डाइऑक्साइड, क्लोरीन, फॉर्मेल्डीहाइड, कपूर आदि। ये पदार्थ जिस प्रकार के जीवों को नष्ट करने के काम में लाए जाते हैं। उसी के अनुसार इनका नाम होता है।
ये पदार्थ अवांछित रूप से भूमि, वायु, जल आदि में एकत्रित होकर उन स्थानों को प्रदूषित कर देते हैं। वहाँ से ये पौधों, भोजन, फलों इत्यादि के द्वारा जंतुओं और मनुष्यों के शरीर में पहुँच जाते हैं। इनमें देर से अपघटित (Decompose) होने वाले पदार्थ अधिक, खतरनाक होते हैं। भूमि में इनके एकत्रित होने से ह्युमस बनाने वाले जीव नष्ट हो जाते हैं। अतः भूमि की उर्वरता भी कम हो जाती है। मनुष्यों के शरीर में पहुँचकर ये तरह-तरह की हानियाँ पहुँचाते हैं।
उपर्युक्त कारणों के अतिरिक्त जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि, वनों से वृक्षों का काटा जाना, नाभिकीय ऊर्जा, मृत पदार्थों तथा युद्ध इत्यादि को भी पर्यावरणीय प्रदूषण का कारण माना गया है।
पर्यावरणीय प्रदूषण के सामाजिक प्रभाव
पर्यावरणीय प्रदूषण के प्रमुख सामाजिक प्रभाव निम्नांकित हैं –
1. जीवन-प्रक्रम पर प्रभाव – प्रदूषण व्यक्तियों के जीवन-प्रक्रम तथा गतिविधियों को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों रूपों से प्रभावित करता है। अत्यधिक प्रदूषण शारीरिक स्वास्थ्य तथा मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। बच्चों का विकास ठीक प्रकार से नहीं हो पाता तथा बीमारियों में वृद्धि हो जाती है।
2. रोगों में वृद्धि – प्रदूषण के परिणामस्वरूप रोगों में वृद्धि होती है तथा जन-स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर पड़ता है। पक्षाघात, पोलियो, मियादी बुखार, हैजा, डायरिया, क्षय रोग आदि अनेक बीमारियाँ विकसित हो जाती हैं। थकान व सिरदर्द भी काफी सीमा तक ध्वनि प्रदूषण का परिणाम है।
3. अपंगता में वृद्धि – प्रदूषण के बुरे प्रभाव से अपंगता में वृद्धि होती है। अनुसंधानों से ज्ञात हुआ है कि रेडियोधर्मी पदार्थों से उत्पन्न प्रदूषण का परिणाम अपंग संतान का उत्पन्न होना है। वैसे भी प्रदूषण के कारण, स्वस्थ शरीर में भी रोग निवारक क्षमता कम होती है। अपंगता से अप्रत्यक्ष रूप से अनेक सामाजिक समस्याएँ पैदा हो जाती हैं।
4. सामाजिक-आर्थिक समस्याओं में वृद्धि – प्रदूषण के कारण फसलें भी नष्ट हो जाती हैं। जलीय जीवों के मरने से खाद्य पदार्थों की हानि होती है। बड़ी संख्या में मछलियों आदि का मरना, बीमार होना आदि स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होने के साथ-साथ अनेक आर्थिक समस्याएँ उत्पन्न कर देती है।
पर्यावरणीय प्रदूषण के निराकरण के उपाय
पर्यावरणीय प्रदूषण आज एक अत्यंत गंभीर समस्या है; अतः केंद्र तथा राज्य सरकारों ने प्रदूषण के नियंत्रण तथा पर्यावरण के संरक्षण के लिए अनेक उपाय किए हैं। इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु केंद्र एवं राज्य सरकारों ने लगभग 30 कानून बनाए हैं। इनमें से प्रमुख कानून हैं- जल (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) अधिनियम, 1974; वायु (प्रदूषण और निवारण) अधिनियम, 1981; फैक्ट्री अधिनियम; कीटनाशक अधिनियम आदि। इन अधिनियमों के क्रियान्वयन का दायित्व केंद्रीय एवं राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, कारखानों के मुख्य निरीक्षक और कृषि विभागों के कीटनाशक निरीक्षकों पर है। पर्यावरण संरक्षण के संबंध में सरकारी प्रयासों का संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है –
1. पर्यावरण संगठनों का गठन – सबसे पहले चौथी योजना के प्रारंभ में सरकार का ध्यान पर्यावरण संबंधी समस्याओं की ओर आकर्षित हुआ। इस दृष्टि से सरकार ने सर्वप्रथम 1972 ई० में एक पर्यावरण समन्वय समिति का गठन किया। जनवरी 1980 ई० में एक अन्य समिति का गठन किया जिसे विभिन्न कानूनों तथा पर्यावरण को बढ़ावा देने वाले प्रशासनिक तंत्र की विवेचना करने और उन्हें सुदृढ़ करने हेतु सिफारिशें देने का कार्य सौंपा गया। इस समिति की सिफारिश पर 1980 ई० में पर्यावरण विभाग की स्थापना की गई। परिणामस्वरूप पर्यावरण के कार्यक्रमों के आयोजन, प्रोत्साहन और समन्वय के लिए 1985 ई० में ‘पर्यावरण और वन्य-जीवन मंत्रालय की स्थापना की गई।
2. पर्यावरण (सुरक्षा) अधिनियम, 1986 – यह अधिनियम 19 नवम्बर,1986 ई० से लागू हो गया है। इस अधिनियम की कुछ महत्त्वपूर्ण बातें निम्नांकित हैं –
पर्यावरण की गुणवत्ता के संरक्षण के लिए सभी आवश्यक कदम उठाना,
⦁ इससे केंद्र सरकार को निम्नलिखित अधिकार प्राप्त हो गए हैं –
⦁ पर्यावरण सुरक्षा से संबंधित अधिनियमों के अंतर्गत राज्य सरकारों, अधिकारियों और प्राधिकारियों के काम में समन्वय स्थापित करना,
⦁ पर्यावरणीय प्रदूषण के निवारण, नियंत्रण और उपशमन के लिए राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम की योजना बनाना और उसे क्रियान्वित करना,
⦁ पर्यावरणीय प्रदूषण के नि:सरण के लिए मानक निर्धारित करना,
⦁ किसी भी अधिकारी को प्रवेश, निरीक्षण, नमूना लेने और जाँच करने की शक्ति प्रदान करना,
⦁ पर्यावरणीय प्रयोगशालाओं की स्थापना करना या उन्हें मान्यता प्रदान करना,
⦁ सरकारी विश्लेषकों को नियुक्त करना या उन्हें मान्यता प्रदान करना,
⦁ पर्यावरण की गुणवत्ता के मानक निर्धारित करना,
⦁ दुर्घटनाओं की रोकथाम के लिए रक्षोपाय निर्धारित करना और दुर्घटनाएँ होने पर उपचारात्मक कदम उठाना,
⦁ खतरनाक पदार्थों के रखरखाव/सँभालने आदि की प्रक्रियाएँ और रक्षोपाय निर्धारित करना, तथा
⦁ कुछ ऐसे क्षेत्रों का परिसीमन करना जहाँ किसी भी उद्योग की स्थापना अथवा औद्योगिक गतिविधियाँ संचालित न की जा सकें।
⦁ किसी भी व्यक्ति को यह अधिकार प्राप्त है कि निर्धारित प्राधिकरणों को 60 दिन की सूचना देने के बाद इस अधिनियम के उपबंधों का उल्लंघन करने वालों के विरुद्ध न्यायालयों में शिकायत कर दे।
⦁ अधिनियम के अंतर्गत किसी भी स्थान का प्रभारी व्यक्ति किसी दुर्घटना आदि के परिणामस्वरूप प्रदूषकों का रिसाव निर्धारित मानक से अधिक होने या अधिक रिसाव होने की आशंका पर उसकी सूचना निर्धारित प्राधिकरण को देने के लिए बाध्य होगा।
⦁ अधिनियम का उल्लंघन करने वालों के लिए अधिनियम में कठोर दंड देने की व्यवस्था की गई है।
⦁ इस अधिनियम के अंतर्गत आने वाले मामले दीवानी अदालतों के कार्यक्षेत्र में नहीं आते।
3. जल प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण बोर्ड – केंद्रीय जल प्रदूषण निवारण और नियंत्रण बोर्ड, जल और वायु प्रदूषण के मूल्यांकन, निगरानी और नियंत्रण की शीर्षस्थ संस्था है। जल (1974) और वायु (1981) प्रदूषण निवारण और नियंत्रण कानूनों तथा जल उपकर अधिनियम (1977) को लागू करने का उत्तरदायित्व बोर्ड पर और इन अधिनियमों के अंतर्गत राज्यों में गठित इसी प्रकार के बोर्डो पर है।
4. केंद्रीय गंगा प्राधिकरण – सरकार ने 1985 ई० में केंद्रीय गंगा प्राधिकरण की स्थापना की थी। गंगा सफाई कार्य-योजना का लक्ष्य नदी में बहने वाली मौजूदा गंदगी की निकासी करके उसे अन्य किन्हीं स्थानों पर एकत्र करना और उपयोगी ऊर्जा स्रोत में परिवर्तित करने का है। इस योजना में निम्नलिखित कार्य शामिल हैं –
⦁ दूषित पदार्थों की निकासी हेतु बने नालों और नालियों का नवीनीकरण,
⦁ अनुपयोगी पदार्थों तथा अन्य दूषित द्रव्यों को गंगा में जाने से रोकने के लिए नए रोधक नालों का निर्माण तथा वर्तमान पम्पिंग स्टेशनों और जल-मल सयंत्रों का नवीनीकरण,
⦁ सामूहिक शौचालय बनाना, पुराने शौचालयों को फ्लश में बदलना, विद्युत शव दाह गृहे बनवाना तथा गंगा के घाटों का विकास करना, तथा
⦁ जल-मल प्रबंध योजना का आधुनिकीकरण।
5. अन्य योजनाएँ – पर्यावरणीय प्रदूषण के निराकरण हेतु जो योजनाएँ बनाई गईं, उनमें से प्रमुख योजनाएँ इस प्रकार हैं –
⦁ राष्ट्रीय पारिस्थितिकी बोर्ड (1981) की स्थापना,
⦁ विभिन्न राज्यों में जीव-मंडल भंडारों की स्थापना,
⦁ सिंचाई भूमि स्थलों के लिए राज्यवार नोडल एकेडेमिक रिसर्च इंस्टीट्यूट की स्थापना,
⦁ राष्ट्रीय बंजर भूमि विकास बोर्ड (1985) की स्थापना,
⦁ वन नीति में संशोधन,
⦁ राष्ट्रीय वन्य जीवन कार्य योजनाओं का आरंभ,
⦁ अनुसंधान कार्यों के लिए निरंतर प्रोत्साहन,
⦁ अंतर्राष्ट्रीय सहयोग प्राप्त करना, तथा
⦁ प्रदूषण निवारण पुरस्कारों की घोषणा।
प्रदूषण के निराकरण हेतु सरकार द्वारा उठाए गए कदमों में समाज के व्यक्तियों के साथ की कमी रही। है। इस कारण इन उपायों के उचित परिणाम अभी हमारे सामने नहीं आए हैं। जल, वायु तथा मृदा प्रदूषण के निराकरण हेतु एक ओर जहाँ संतुलित औद्योगिक विकास को बनाए रखा जाना आवश्यक है। तो दूसरी ओर जनसंख्या विस्फोट जैसे सामाजिक कारकों पर नियंत्रण रखना भी जरूरी है। हमारे समाज में बढ़ते हुए ध्वनि प्रदूषण को रोकने हेतु तथा वनों और वृक्षों को काटने से रोकने के लिए भी अधिक कठोर कदम उठाए जाने की आवश्यकता है।