1930 एवं 1940 के दशकों में भारत में इस विषय पर वाद-विवाद प्रारंभ हुआ कि भारत में जनजातीय समाज का क्या स्थान हो और राज्य उनसे किस प्रकार का व्यवहार करे। एक तरफ अंग्रेज प्रशासक एवं मानव-वैज्ञानिक थे जिनका मत था कि जनजातियों को संरक्षण देने में राज्य को आगे आना चाहिए ताकि वे अपनी जीवन-पद्धति तथा संस्कृति को बनाए रख सकें। ऐसे विचारकों को यह तर्क था कि यदि सीधे-सादे जनजातीय लोग हिंदू समाज तथा संस्कृति की मुख्य धारा में सम्मिलित हो जाएँगे तो उनका न केवल सांस्कृतिक रूप से पतन होगा, अपितु वे शोषण से भी नहीं बच पाएँगे। इसलिए ऐसे विचारक जनजातियों को अलग-थलग रखने के पक्ष में थे ताकि उन्हें अपनी सांस्कृतिक पहचान बनाए रखने का अवसर मिलता रहे।
जनजातियों को अलग-थलग रखने के विरुद्ध दूसरी तरफ ऐसे राष्ट्रवादी भारतीय भी थे जिनका यह मत था कि जनजातियों के पिछड़ेपन को आदिम संस्कृति के संग्रहालय’ के रूप में ही बनाए नहीं रखा जाना चाहिए। घूर्ये राष्ट्रवादी विचारधारा के प्रबल समर्थक थे तथा उन्होंने जनजातियों को ‘पिछड़े हिंदू समूह’ के रूप में पहचाने जाने पर बल दिया। उन्होंने अनेक ऐसे साक्ष्य भी दिए जिनसे यह प्रमाणित होता था कि वे लंबे समय तक हिंदुत्व से आपसी अंत:क्रिया द्वारा जुड़े हुए थे। घूयें जैसे राष्ट्रवादी विचारकों का मत था कि जनजातियों को राष्ट्रीय विचारधारा में सम्मिलित किया जाना चाहिए। ऐसा करने में होने वाले दुष्परिणाम मात्र जनजातीय संस्कृति तक ही सीमित न होकर भारतीय समाज के सभी पिछड़े तथा दलित वर्गों में समान रूप से देखे जा सकते हैं। विकास के मार्ग में आने वाली ये वे आवश्यक कठिनाइयाँ हैं जिनसे बचा नहीं जा सकता।