डी०पी० मुकर्जी समाजशास्त्र के लखनऊ संपद्राय के जाने-पहचाने विद्वान रहे हैं जो शिक्षण के अतिरिक्त बौद्धिक तथा जनजीवन में भी अपने समय के सर्वाधिक प्रभावशाली विद्वान थे। मुकर्जी का मानना था कि भारत की सामाजिक व्यवस्था ही उसका निर्णायक एवं विशिष्ट लक्षण है तथा इसीलिए प्रत्येक सामाजिक विज्ञान के लिए यह आवश्यक है कि वह इस संदर्भ में इससे जुड़ा हो। भारतीय संदर्भ में सामाजिक व्यवस्था का निर्णायक पक्ष इसका सामाजिक पक्ष है क्योंकि इतिहास, राजनीति तथा अर्थशास्त्र पश्चिम की तुलना में भारत में कम विकसित थे।
‘जीवंत परंपरा से अभिप्राय उस परंपरा से है जो भूतकाल तक ही सीमित नहीं है, अपितु परिवर्तन की संवेदनशीलता से भी जुड़ हुई है। अर्थात् यह वह परंपरा है जो भूतकाल से कुछ ग्रहण कर उससे संबंध बनाए रखने के साथ-साथ नई चीजों को भी ग्रहण करती है। अतः जीवंत परंपरा पुराने तथा नए तत्त्वों का मिश्रण है। भारतीय सामाजिक परंपराएँ जीवंत परंपराएँ हैं जिन्होंने अपने आप को भूतकाल से जोड़ने के साथ-ही-साथ वर्तमान के अनुरूप ढाला है और इस प्रकार समय के साथ अपने आप को विकसित कर रही हैं।
भारतीय परंपराओं में श्रुति, स्मृति तथा अनुभव नामक परिवर्तन के तीन सिद्धांत निहित हैं। इसलिए मुकर्जी ने सभी भारतीय समाजशास्त्रियों के लिए जीवंत परंपराओं का अध्ययन आवश्यक माना है। उनका मत था कि भारतीय समाजशास्त्री के लिए केवल समाजशास्त्री होना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि उसकी प्रथम आवश्यकता भारतीय होना है। इस नाते उसके लिए लोकरीतियों, रूढ़ियों, प्रथाओं तथा परंपराओं से जुड़कर ही सामाजिक व्यवस्था के अंदर तथा उसके आगे की वास्तविकता को समझना जरूरी है। मुकर्जी का मानना था कि समाजशास्त्रियों में भाषा को सीखने तथा भाषा की उच्चता-निम्नता और संस्कृति की पहचान करने की क्षमता होनी चाहिए।