एम०एन० श्रीनिवास ने अपने पूरे जीवन भर गाँव तथा ग्रामीण समाज के विश्लेषण में अत्यंत रुचि ली। उन्होंने गाँव में किए गए क्षेत्रीय कार्यों का नृजातीय विवरण तथा इस पर परिचर्चा देने के साथ-साथ भारतीय गाँव को सामाजिक विश्लेषण की एक इकाई के रूप में भी स्वीकार किया। उनका मत था कि गाँव एक आवश्यक सामाजिक पहचान है तथा ऐतिहासिक साक्ष्य इस एकीकृत पहचान की पुष्टि करते हैं। श्रीनिवास ने यह दर्शाया कि गाँव में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं तथा गाँव कभी भी आत्म-निर्भर नहीं थे। वे विभिन्न प्रकार के आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक संबंधों से क्षेत्रीय स्तर पर जुड़े हुए थे। इसीलिए उन्होंने उन सभी ब्रिटिश प्रशासकों तथा सामाजिक मानववैज्ञानिकों की आलोचना की है जिन्होंने भारतीय गाँव का स्थिर, आत्म-निर्भर तथा लघु गणतंत्र के रूप में चित्रण किया।
लुईस ड्यूमो गाँव के अध्ययन के पक्ष में नहीं थे। उनका मत था कि जाति जैसी सामाजिक संस्थाएँ गाँव की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण थीं क्योंकि गाँव केवल कुछ लोगों का विशेष स्थान पर निवास करने वाला समूह मात्र था। गाँव बने रह सकते हैं या समाप्त हो सकते हैं और लोग एक गाँव को छोड़ दूसरे गाँव को जा सकते हैं, लेकिन उनकी जाति अथवा धर्म जैसी सामाजिक संस्थाएँ सदैव उनके साथ रहती हैं जहाँ वे जाते हैं वहीं सक्रिय हो जाती हैं। इसीलिए ड्यूमो का मत था कि गाँव को एक श्रेणी के रूप में महत्त्व देना गुमराह करने वाला हो सकता है।