भारतीय समाजशास्त्र के इतिहास में ग्रामीण अध्ययनों का विशेष महत्त्व है। वस्तुत: भारत में समाजशास्त्र का विकास ही ग्रामीण अध्ययनों से हुआ है। ग्रामीण अध्ययनों के महत्त्व के संबंध में एआर० देसाई का कहना है-“स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात् ग्रामीण सामाजिक संगठन, संरचना, प्रकार्य तथा उविकास का क्रमबद्ध अध्ययन जरूरी ही नहीं अत्यंत जरूरी हो गया है। ग्रामीण पुनर्निर्माण भारतीय सरकार की प्रमुख उद्देश्य रहा है ताकि ग्रामीण समाज से संबंधित समस्याओं का समाधान करके एक शोषण रहित धर्मनिरपेक्ष समाजवादी राज्य बनाया जाए। भारत में ग्रामीण समाजशास्त्र इसलिए आवश्यक तथा महत्त्वपूर्ण है क्योंकि भारत की दो-तिहाई से अधिक जनसंख्या गाँव में ही रहती है।
ए०आर० देसाई ने भारत में ग्रामीण समाज की आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक संरचना आदि के अध्ययन को अति आवश्यक बताते हुए इसके निम्नलिखित तीन कारणों का उल्लेख किया है –
⦁ भारत एक कृषि प्रधान देश है। इसके लंबे इतिहास, जटिल सामाजिक संगठन, धार्मिक जीवन, सांस्कृतिक प्रतिमान इत्यादि को अगर सही रूप में समझना है तो ग्रामीण भारत का अध्ययन करना जरूरी है।
⦁ भारतीय ग्रामीण समाज भी आधुनिक युग के नवीन विचारों से पूरी तरह प्रभावित है इसलिए अगर विभिन्न सांस्कृतिक स्तरों, जादू-टोने से लेकर तार्किक दृष्टिकोण तक, से अध्ययन करना है तो ग्रामीण समाज को समझना जरूरी है।
⦁ अंग्रेजी राज में भारत की ग्रामीण सामाजिक-आर्थिक संरचना में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए जिनके परिणामस्वरूप गाँवों की आत्म-निर्भरता समाप्त हो गई। जजमानी व्यवस्था, संयुक्त परिवार, जाति व्यवस्था इत्यादि में परिवर्तन के कारण एक तरह से असंतुलन-सा पैदा हो गया है। ग्रामीण पुनर्निर्माण करने के लिए भारतीय गाँवों का पर्याप्त ज्ञान होना जरूरी है तथा ग्रामीण समाजशास्त्र इसमें सहायक हो सकता है।
भारत में ग्रामीण अध्ययनों को आगे बढ़ाने में एम०एन श्रीनिवास की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। उन्होंने ग्रामीण अध्ययनों में न केवल नृजातीय शोधकार्य की पद्धति के महत्त्व एवं सार्थकता से अवगत कराया, अपितु भारतीय गाँवों में होने वाले तीव्र सामाजिक परिवर्तन का भी विश्लेषण किया। इस प्रकार के अध्ययन भारतीय नीति-निर्माताओं के लिए काफी उपयोगी सिद्ध हुए। इस प्रकार, ग्रामीण अध्ययनों ने समाजशास्त्र जैसे विषय को स्वतंत्र राज्य के परिप्रेक्ष्य में एक नई भूमिका प्रदान की।