भारत में जनजातीय आंदोलनों के अतिरिक्त अनेक समाज-सुधार आंदोलन भी हुए हैं जिनका उद्देश्य समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर कर उनसे प्रभावित वर्गों का उत्थान करना रहा है। ऐसे आंदोलन मुख्य रूप से निम्न जातियों (पूर्व में अस्पृश्य जातियाँ) तथा महिलाओं पर अधिक केंद्रित रहे. हैं। अधिकतर जनजातीय आंदोलन अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक तथा राजनीतिक पहचान पर बल देते हैं। वास्तव में, झारखंड तथा छत्तीसगढ़ राज्यों का निर्माण इसी प्रकार के आंदोलनों का फल है। विकास के नाम पर बड़े-बड़े बाँधों, खदानों एवं फैक्टरियों के निर्माण के कारण जनजातीय वर्गों पर एक असमान दबाव पड़ता है जिससे विस्थापन जैसी गंभीर समस्या विकसित होने लगती है। भारत में पिछले पचास से अधिक वर्षों में 3,300 बड़े बाँध बनाए गए हैं जिनके परिणामस्वरूप लगभग 21 से 33 मिलियन लोग विस्थापित हुए हैं।
जनजातीय एवं दलित वर्गों की स्थिति विस्थापितों में और भी दयनीय है तथा 40-50 प्रतिशत विस्थापित लोग जनजातीय समुदायों के ही हैं। घूर्ये ने जनजातियों को ‘पिछड़े हिंदू समूह’ कहा तथा उन्हें भारत की. मुख्य धारा की संस्कृति में सम्मिलित करने पर बल दिया। ऐसा करने पर जनजातियों में होने वाले आंदोलनों एवं संघर्षों के वैसे ही परिणामों की बात कही जैसे कि अन्य पिछड़े वर्गों में रहे हैं। अस्पृश्यता समाप्त करने हेतु किए गए समाज-सुधार आंदोलनों के पीछे भी इस अमानवीय कुप्रथा को समाप्त कर अस्पृश्यों के स्तों को ऊँचा करना रहा है। इसी भाँति बाल विवाह, सती प्रथा, नरबलि जैसी कुप्रथाओं को लेकर हुए आंदोलनों का लक्ष्य महिलाओं की स्थिति में सुधार करना था। महिला स्वतंत्रता जैसे आंदोलनों के पीछे महिलाओं को समान अधिकार देने जैसा मुद्दा प्रमुख रहा है।