कल्याणकारी राज्यों ने अपने नागरिकों के लिए जो किया है उससे अधिक करना चाहिए अथवा राज्य को अपनी भूमिकाओं को निरंतर कम करके इन्हें स्वतंत्र बाजार के हवाले कर देना चाहिए। यह एक विवादास्पद मुद्दा है। ए०आर० देसाई जैसे मार्क्सवादी विद्वानों एवं राष्ट्रवादियों द्वारा यह तर्क दिया जाता है कि कल्याणकारी राज्य लोगों के कल्याण के जो दावे करता है वे खोखले हैं। अमेरिका तथा यूरोप के राज्य, जो अपने आप को तथाकथित कल्याणकारी राज्य कहते हैं, अपने । नागरिकों को न केवल निम्नतम आर्थिक तथा सामाजिक सुरक्षा देने में असफल रहे हैं, अपितु वे आर्थिक असमानताओं को कम करने में भी विफल रहे हैं। वे धन के असमान वितरण तथा अत्यधिक बेरोजगारी रोकने में भी असफल रहे हैं। अत: कल्याणकारी राज्यों को इन सभी कार्यों को भी करना चाहिए तथा वास्तव में कल्याणकारी होने का प्रयास करना चाहिए।
दूसरी ओर, अनेक विद्वान ऐसे हैं जो राज्य के कार्यों को सीमित करने के पक्ष में हैं। उनका तर्क है कि राज्य को केवल कानून बनाने तथा इसे लागू करने पर ही अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए ताकि समाज में शांति बनी रहे एवं कानून का शासन स्थापित हो सके। बाकी सभी कार्य राज्य को या तो स्वतंत्र बाजार के हवाले कर देने चाहिए अथवा अन्य संस्थाओं को स्थानांतरित कर देने चाहिए। राज्य से उन सब कल्याणकारी कार्यों की आशा नहीं की जा सकती जो वह कर ही नहीं सकता। इसलिए कल्याणकारी राज्य निर्धनता, बेरोजगारी, सामाजिक भेदभाव, नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करने, पूँजीवादियों की अधिक लाभ कमाने की प्रवृत्ति, श्रमिकों के शोषण आदि समस्याओं का समाधान नहीं कर पाए हैं।